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अब किसे बनवास दोगे / अध्याय 3 / भाग 5 / शैलेश ज़ैदी

जिस समय घेर रही हों चारों ओर से
आदमी को आग की लपटें
लपटों में जलता दिखाई देता हो
पिता का चेहरा,
और झुलस रही हो माँ की ममता
जिस समय खिसक गयी हो
पाँव के नीचे से धरती
धरती पर खड़े हों
ढेर सारे हिंसक पशु
पशुओं की गरदन में पड़ी हों,
आत्मीय जनों की मुण्डमालाएँ
और जबड़ों से टपक रहा हो ताजा रक्त
आदमी के लिए मुश्किल है निर्णय लेना
कि वह क्या करे और कहाँ जाए ?
मैंने देखी हैं इस तरह की घटनाएँ
इसी धरती पर घटते
मैंने देखा है आदमी को टुकड़ों में बंटते
मैंने देखा है भरे-पूरे परिवारों को
कागज की तरह कटते-फटते
और वह जो सिर्फ आदमी नहीं है
पूर्ण मानव है,
जानता है आग की लपटों को शांत कर देना,
जानता है लपटों में फूल उगाना
राम ने देख लिया था
शहनाई की धुन को मातमी संगीत में तब्दील होते
राम देख रहे थे विमाता से पराजित पिता को
फालिजग्रस्त
राम देख चुके थे मामा के आतंक की नग्न तस्वीरें
तस्वीरों के बीच से उभरती भावी रेखाएँ
राहु के जबड़ों में फड़फड़ाता चाँद
चाँद के गिर्द मंडलाते काले दैत्याकार बादल
बादलों की लम्बी-लम्बी लाल-लाल जीभें
संज्ञा- शून्य धरती
चेतना- शून्य आकाश
जहरीला सर्वनाश
पर राम अपनी जगह थे शांत
भावुकता से परे
निर्द्वंद्व, अविचल !
पढ़ ली थीं राम ने लक्ष्मण की तेजाबी आँखें
देख ली थी सीता के मन की हलचल
सुन ली थी अहिल्या की पुकार
इसीलिए पिता से वचनबद्ध राम
नापने लगे
चौदह वर्षों की यातना का अक्षांश और देशांतर
तैर गई सहज ही एक सौम्य मुस्कान
राम के होंठों पर
याद है आज भी मुझे राम का वह निर्णय
जिस पर किये थे हस्ताक्षर
लक्ष्मण और सीता ने
सुरक्षित है जिस पर युग के अंगूठे का निशान
और वक्त की मुहर