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अब किसे बनवास दोगे / अध्याय 4 / भाग 7 / शैलेश ज़ैदी

दलितों की बस्ती में
नाचती हैं जहाँ सूर्य की किरणें
थिरकती हैं जीवन की रश्मियाँ
कमसिन, जवान और नंगे अंधेरे जहाँ
हँसते हैं प्रकाशयुक्त सहज हँसी
देखता हूँ मैं
कि तैरती है वहाँ की हवा में उर्मिला
सुगंध पुंज बनकर
देखता हूँ मैं कि एक हरी क्रांति
फूटती है धरती से
भर जाती है झोंपडियों के भीतर
राजभवन आ गया है झुक कर
कच्चे मकानों और फूस के घरों के बराबर
शबरी के साथ राम करते हैं भोजन
उर्मिला के माध्यम से अयोध्या में
झुक गया है नीआम्बर,
धरती के चरणों पर
खोजती हैं सूर्य की किरणें
अपनी उम्र का एक हिस्सा
उर्मिला की सांसों में,
धुंध रहित शामों में,
धुली हुई सुब्हों में,
चमकीली दुपहरियों में
इतिहास दब गया है वर्त्तमान के नीचे
और हावी हो गई है
देश के मानसून पर कविता
और यह कविता रुदन नहीं है
साधना है
जो खोलती है चिंतन के अन्तरिक्ष