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आत्म निर्माता के स्वगत (दसवाँ निशीथ) / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

प्लावन करो ज्योति का व्यापक,
अन्ध प्राण-धारा में,
अब न ह्रदय बंधने का इच्छुक
कभी शाप -कारा में,
ज्ञान विकल, निष्काम कम की
मधुर, दिव्य अर्चा को,
अब न और दबकर रहने दो
अंतर की चर्चा को,
भय -कम्पित यह विनय पराजित
अपनी क्षुद्र प्रणति से,
किन्तु असंशय मन कहता—
‘सब हैं केवल अनुमति से! ’
किन्तु जन्मों की विकट पाप का
पल है घृणा तुम्हारी ?
देव! उबारो सर्वनाश से,
तुम जग के अधिकारी!
माना ; --मोह प्यास जीवन की,
पर न सत्य से कम है!
कैसे कह दूँ – धूप-छाँह यह
केवल पथ का भ्रम है!