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आत्म निर्माता के स्वगत (प्रथम निशीथ) / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

इस महादुर्भेद्य तम से,
घोर निशि-सी म्लान घड़ियों में,
विकट संघर्ष कर, खुद हार, हाहाकार भर,
रुककर, तनिक विश्राम का जब व्यंग भरते प्राण;
कौन प्रकटा धूम-तन, कुछ दूर, बेपहचान ?
--शून्य की सिकुड़न पसीजी रच रही आकार,
झूमता बढ़ता चला वह आ रहा अनिवार,
पुतलियां कढ़ती हुई, कुछ लाल,
विहँसता निःशब्द ही, अकारण महाकंकाल !
आ गया लो... आ गया वह पास,
आह! आह! ! असह्य बर्फीला तरल उच्छवास! !!
ओह! तांबे-सी मढ़ी जलती हथेली इन भुजाओं पर,
बिजलियों की कँप– कँपी भर थरथराते होठ......!
अहे! ... मेरे उच्च, पुंजीभूत, शत संकल्प !
एक क्षण में दृश्य होगी अब, तुम्हारी हूकती-सी ढूह,
जिस पर मैं पड़ा रह जाऊँगा म्रियमाण –
मैं ......., मैं अभी निस्स्नेह दीपक-सा,
शिथिल, टिम-टिम, किसी का नित्य स्नेहाधीन,
ओ...! मत पूछ मुझसे प्रश्न,
मैं दीपक, दया के इंगितों पर जल रहा हूँ मौन,
आशा में, चिरन्तर एक आशा में!
लौटजा, ओ, लौटजा मेरे निठुर कंकाल!
मैं पहचानता हूँ,-- तू सदा आता छिपा कमजोरियों में,
जिन्दगी भर, जानता हूँ –
“जत बार भयेर मुखोस तार करेछि विश्वास,
ततबार हयेछे अनर्थ पराजय...!”