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उठा कर्म की ध्वजा / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'

उठा कर्म की ध्वजा
तट पर मत कर शोर
जलधि में उतर
डूब कर मोती ला

हासिल हुआ यहाँ कब किसको
बिना किए कुछ बतला दे
उठा कर्म की ध्वजा हाथ में
आलस को चल जतला दे
मन समझाने, भाग्यवाद की
मन्दिर से मत पोथी ला

छोड़ सहारों को पीछू तू
पथ पर चल पड़ एकाकी
तू चाहे तो ला सकता है
धरती पर नभ की झांकी
बड़ी-बड़ी आएंगी खुशियाँॅ
पहले खुशियाँ छोटी ला

खुली चुनौती दे अम्बर को
आगे बड़कर साहस से
सोना कर दे, छू कर दुनिया
तू दृढ़ता के पारस से
कर सपने साकरा दृष्टि में
विजय श्री की चोटी ला
दीपक जैसा जल
जब तक सॉंसें हैं इस तन में
दीपक जैसा जल

रहा सदा संघर्ष दिये का
घोर अंधेरों से
आशा की लौ कब डरती है
दुख के फेरों से
मेरे मन मत कम होने दे
अन्तर का सम्बल

मंजिल चलने से मिलती है
नदिया कहती है
हवा हमेशा प्राणों को सरसाने बहती है
देख रहा क्यूं कल का रस्ता
आता कभी न कल

निर्झर कहां रूका करते हैं
गति अवरोधों से
हिम्मत वाले कब घबराते
सतत विरोधों से
संशय की ऑंधी से डिगता कब
                        विश्वास अटल ?

कही न हो मृगजल
बस थोड़ी सी कोशिश भर में
छिपा हुआ है हल
अगर सहेजी आज बॅंूद तो
बचा रहेगा कल

बची रहेगी रंगत, रौनक
धरती की हरियाली
फूल, पॉंखुरी, डाली, बेलें
तितली रंगों वाली
बचा रहेगा खग कुल गौरव
बची रहेंगी पॉंखें
बचे रहेंगे सपन सजीले
सपनों वाली ऑंखें
बॅंूद-बॅंूद संचय करने की
हमस ब करें पहल

बचा रहेगा चॅंदा -सूरज
हिमनद, जंगल, बादल
बचा रहेगा वंशी का स्वर
बचा रहेगा मादल
बची रहे मुस्कान अधर की
बची रहे अभिलाषा
रहे धरा पर इतना पानी
रहे न कोई प्यासा
नदिया भी हो पोखर भी हो
कहीं न हो मृगजल

बची रहेगी धरती अपनी
और गगन हम सब का
आने वाले सुख भोगेंगे
संचय के इस तप का
बूँद बूँद संचय से हम सब
इतना जोड़ सकेंगे
सूरज के गुस्से की गरमी
हॅंस हॅंस ओढ़ सकेंगे
दृढ़ संकल्पित मन का होता
है अभियान सफल