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कंठ कोहिनूरों की माला / शब्द के संचरण में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

भोगी तन में जोगी मन में!
यह था तो दुर्योग हो गया पर सुयोग जीवन में!

कंठ कोहनूरों की माला
करतल कस्तूरी मृगछाला
सौ-सौ यत्न करूँ पर जो हूँ वह न दिखूँ दरपन में

मैंने दृग-जल स्नान किया है
प्रति-पल कोई पर्व जिया है
घर-आँगन जैसा ही रह लूँ मैं अनन्त निर्जन में!

मुझे मिली अक्षत तरुणायी
मैंने सूर्य-किरण-गति पायी
मुझे न दिखती कोई दूरी धरती और गगन में!

मुझे अमर होना न अमृत से
सकल-सिद्धि मिल गयी सुकृत से
मैं जन्मान्तर जी लेता हूँ मृत्युंजय गुन्जन में!