भोगी तन में जोगी मन में!
यह था तो दुर्योग हो गया पर सुयोग जीवन में!
कंठ कोहनूरों की माला
करतल कस्तूरी मृगछाला
सौ-सौ यत्न करूँ पर जो हूँ वह न दिखूँ दरपन में
मैंने दृग-जल स्नान किया है
प्रति-पल कोई पर्व जिया है
घर-आँगन जैसा ही रह लूँ मैं अनन्त निर्जन में!
मुझे मिली अक्षत तरुणायी
मैंने सूर्य-किरण-गति पायी
मुझे न दिखती कोई दूरी धरती और गगन में!
मुझे अमर होना न अमृत से
सकल-सिद्धि मिल गयी सुकृत से
मैं जन्मान्तर जी लेता हूँ मृत्युंजय गुन्जन में!