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कथा पिछले जनम की / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

इसी जीवन में मिली
पहचान जो अपनी कभी;
आज सचमुच हो चली
वह कथा पिछले जनम की!

धुन्ध के उस पार भी
तब दीखते थे रंग सब;
चिलचिलाती धूप ने
रंगान्ध पूरा कर दिया!
अब सभी कुछ हुआ काला याकि उजला
तीसरा हर पक्ष उसने हर लिया!
इस हथेली में चुभा
था-चाँद:टूटा आइना;
आज सचमुच हो चली
वह व्यथा पिछले जनम की

दूँ सभी कुछ से न कम -
जो ले चुके यह मूल्य भी,
थे उन्हीं के तथ्य, जो
अब सत्य मेरा गढ़ चुके ।
कुछ नहीं अपना बचा इन मुठ्ठियों में
-यह किताब खुली हुई -सब पढ़ चुके!
कल्पबेलि कभी झुकी
थी पाँव पर, बन प्रार्थना;
आज सचमुच हो चली
वह प्रथा पिछले जनम की!

धूप ने धोया जिसे
उस धुन्ध से ही पुत गई;
अँधेरा सतरंग हो
उजले ठहाकों से धुला ।
रंग-पथ पर खास गन्ध उरेहता जो
वही मौसम-तीसरा पख हो चला!
इन्द्रधनु सचमुच पड़ा
था वक्ष पर गलहार बन;
हो चली अनुभूति वह-
अन्यथा पिछले जनम की!