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करुण दशा / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

घर-घर ग्राम-ग्राम नगरों में भर जावेगा भूरि प्रकाश;
विभा बढ़ेगी, तो भी होगा क्या भारत-भूतल-तम-नाश?
अगणित दीपावलि चमकेगी, चमक उठेगा चारु दिगंत;
तो भी क्या तामस मानस के तमो भाव का होगा अंत?
आलोकित कर सकल थलों को सफलित होवेगा आलोक;
तो भी क्या तम-वलित विलोचन सकेंगे स्वहित वदन विलोक।
जहाँ-तहाँ कोने-कोने में जग जाएगी ज्योति अपार;
तो भी क्या विमुक्त होवेगा अंधकार-अवरोधित द्वार।
बड़ी व्यथामय ये बातें हैं, कैसे होवेगा निस्तार;
दीपमालिके, कर पावेगी क्या तू इसका कुछ प्रतिकार?
रक्त-सिक्त क्यों उत्सव होवे, क्षत-विक्षत क्यों हो सुख-पुंज;
हो विदलित बहु म्लान बने क्यों परम मनोरम शांति-निकुंज।
क्या जन-करुण दशा अवलोके तू न कलेजा लेगी थाम;
मलिन क्या नहीं बन जावेगा तेरा आनन लोक-ललाम?
व्यथित हो रहा हूँ, आएँगे क्या अब नहीं मनोहर बार;
वैसा फिर न चमक पावेगा क्या भारत का भव्य लिलार?