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काल-पुरुष गाँधी / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

तुम आत्म-यज्ञ के होम-कुण्ड के गन्धपूत;
हे स्वयं प्रकाशित दिनमणि-से प्रिय देवदूत।
तुम सत्य, शील, समता, मृदुता के खिले फूल;
संयमी, सतत सन्तुष्ट, शान्ति के सुदृढ़ मूल।

तुझमें गंगा-से सिंचित हिमगिरि-से उपमित;
शुचिआशयता, दुस्तरता, अगम्यता अविदित।
तुझमें युग-युग से पूजित, श्रम से उद्भासित;
चिर-परम्परागत लोक-सभ्यता मर्यादित।

तुम निखिल विश्व के भ्रातृ-भाव से अभिनन्दित;
ईसा के काँटों की छाया में संघर्षित।
कटि में शोभित खादी की लोकोज्ज्वल कछनी;
जो पराधीनता प्रेतात्मा की गलफँसनी।

तुम नग्नगात वनवासी-से लगते तपसी;
पर, सिखलाते सभ्यता-पाठ जग को हब्शी।
बस डेढ़ पसलियों से निर्मित बौनी काया;
उसने जाने ऐसा प्रकाश किससे पाया?
अति चिन्ताग्रस्त ललाट झुर्रियों से छाया;
पर, उसने गहरा तत्त्वान्वेषण प्रकटाया?

हे राष्ट्र-नियन्ता, बुद्धिप्राण,
तुम ‘सन्त पाल’ आधुनिक युगों के नीतिवान।

तुम जुलहा, कोमल उँगलियों से प्रियस्पर्शी
बुनते प्रच्छापट जीवन के गौरवदर्शी।

गलियों, कूचों झोंपड़ियों और पहाड़ों में,
पथ के एकान्तों में, महलों की आड़ों में।
जीवन की दरदीली आहों में, साँसों में,
अपमानों में, गुमराहों के उल्लासों में।
सन्देश ‘चलो’ का लिए शान्तिदा कल्याणी;
लिखती भविष्य का भाग्य एक तुम वह वाणी।

ब्रह्माण्ड बाध्य है सुने जिसे होकर अधीर,
थम जाय लहरता मन्द-मन्द चंचल समीर।

परिवार, सम्पदा से वंचित होने के डर,
पद-ख्याति, प्रतिष्ठा से विहीन होने का डर।
कब डिगा सके तव कृतसंकल्पित अडिग चरण,
निज पथ से, जो युग से भटकों के उद्वोधन।

जालिम की कर दी खड्ग-धार तुमने टेढ़ी;
पशु-बल की नहीं, आत्म-बल की रेती तेरी।
कर सत्य-स्वर्ण से जीवन की प्रतिमा निर्मित;
दी प्राण-प्रतिष्ठा मानव-शव को मनुजोचित।

फूत्कार छोड़ता गरल कुशासन का अजगर;
कर्कश ध्वनि से उनकी दिगन्त कम्पित थर-थर।

नभ में गिद्धों-से दानव दल-के-दल भुक्खड;
उड़ रहे यन्त्र-पंखों को निज हुंकारित कर।
जल-भुन कर कीट-पतंगों से मरते मानव;
जूठन पर लड़ते श्वानों-से भूखे मानव!

हो रहे लिप्त सन्ताप-धूम से नील गगन;
बढ़ रहे दैन्य, भय, रोग, त्रास, क्लेशित जन-मन।

लघु स्वार्थनिरत, अधिकार-क्षुब्ध गर्वित जनगण;
बन काल-विवर के कीट प्रलय के आमन्त्रण।

बो रहे ध्वंस के बीज धरातल पर पावन;
सच्चिदानन्द निज आत्मा को दे निर्वासन।
कर रही निखिल मानवता को पशुता पीड़ित;
जड़गत संस्कारों, आचरणों से उत्प्ररित।

जीवन का मंगल कलश पंक में समासीन;
विज्ञान उड़ाता धूल, वायुमण्डल मलीन।
अब केवल सत्य, अहिंसा के पथ पर निश्चित;
चलकर जग होगा मानवता से अभिनन्दित।

भ्रम, द्वेष मिटें, मद, क्रोध, लोभ, चिर अहंकार;
मिट जाएँ ताप, सन्ताप मनोनभ के विकार।
हो शान्ति विधायक-शक्ति विश्व की महीयान;
सामाजिक संघर्षों, छिद्रों का समाधान।

हो विविध वर्ग, देशों, राष्ट्रों की शक्ति एक;
समता के सक्रिय संस्थापन में दृष्टि एक।
जग तोड़ सके शृंखला दासता की कठोर;
बँध ऐक्य-सूत्र में बाधाओं के शृंग फोड़।

हे दहन-भूमि में घन-वर्षण के सिक्त प्राण;
दो गहन तिमिर में अमर ज्योति का अभयदान।
हे सत्यान्वेषक द्वन्द्वमुक्त;
तुम समद्रष्टा, सर्वतोभद्र व्रत-श्रेय-युक्त।

(रचना-काल: अगस्त, 1945। ‘विशाल भारत’, अक्तूबर, 1945 में प्रकाशित।)