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खदशों में, वसवतों में बसर कर रहे हैं हम / ईश्वरदत्त अंजुम

खदशों में, वसवतों में बसर कर रहे हैं हम
खुद आज अपने साये से भी डर रहे हैं हम

माथे से पोंछते हैं पसीना बहर-क़दम
तय ज़िन्दगी का ऐसे सफ़र कर रहे हैं हम

हासिल निजात होगी शबे-ग़म से भी कभी
मुद्दत से आरज़ूए-सहर कर रहे हैं हम

आया है ले के बीच भँवर के वही हमें
जिस बहरे-ज़िन्दगी के शनावर रहे हैं हम

साक़ी की हम पे ख़ूब नवाज़िश है इन दिनों
अश्क़ों से अपना जामे-तही भर रहे हैं हम

कुछ पल बसर किये थे तिरी ज़ुल्फ़ के तले
बरसों ही खुशबुओं से मुअत्तर रहे हैं हम

निकले हैं आज फेर के मुंह बे-रुखी के साथ
वो जिन की ज़िन्दगी का मुक़द्दर रहे हैं हम

कैसी है ये बिसात जहाने-ख़राब की
'अंजुम' हर एक चाल यहां हर रहे हैं हम।