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खुलते ही जाते पथ तोरण / शंख घोष / प्रयाग शुक्ल

बाँचेगा चिट्ठी यह कौन कहाँ यह तो न जानता
लेकिन यह लिखनी ज़रूर है
लिखनी है, समय हुआ लिखने का,

उठ पड़ना होगा अब
छोड़ना नहीं बाक़ी कोई भी कामकाज
झुककर जल-छाया में मुख सबका देखना
मुख पर सबके पड़ती अपनी भी छाया
कितने जन कितने दिन घिरे हुए
बँधा हुआ अविरल विश्वास
आया सब इतना कैसे पास? जमा हुआ
अब सब लिख डालना

लिखना है मैं भी हूँ उत्सुक, मैं तुमसे मिलने को,
मिलाने को हाथ। जिसको यह लिखना है सम्भव है
वह भी हो चलता चला आता इतने दिनों से
खुलते ही जाते पथ तोरण सब स्वप्न में
सजे हुए खुलते ही जाते वे !

मूल बंगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
(हिन्दी में प्रकाशित काव्य-संग्रह “मेघ जैसा मनुष्य" में संकलित)