Last modified on 21 फ़रवरी 2014, at 23:50

गाने का अभ्यास / कुमार अनुपम

यहाँ राग-विशेष के समय की गम्भीरता है जिसके अटूट सौंदर्य से पहली पहली छेड़खानी का साहस सुर में जुट रहा है निश्शब्द के शोर के दबाव में स्वर महीन और महीन और महीन हो रहा जैसे धागे का सिरा जिसे चुप्पी की सूई में पिरो जाना है जिस तरह होना है उस तरह होने से पहले की राह है जहाँ एक उम्मीद आशंका की तरह बैठी रहती है जिसकी तलाश में एक गीत आता रहता है असहायता के गलियारे में अभ्यास का समय क्या स्लेट की चिकनी चट्टान है जिस पर चढ़ना है यहाँ हवा हवा में शामिल तमाम चीज़ें आवाज़ की सतह को धमकाती हैं बार-बार एक सृजनात्मक लय में लीन गीत नहीं काँपता आवाज़ की सतह पर गीत का चेहरा काँपता है यहीं से देखने पर दिख जाता है गीत का बिम्ब जिसे होते-होते सरासर गीत होना है