Last modified on 27 सितम्बर 2011, at 18:06

गाली ही छूट गयी/वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

ऐसी करतूतों पर मेरी इस जिह्वा से गाली ही छूट गई
देखो तो मरियल सा साँप भी न मर पाया लाठी भी टूट गई

दावे सब टाँय टाँय फिस्स हुए
खूब खिलाए तुमने माल पुए
लतियाया कर्तव्यों को जी भर
स्वारथ के श्रद्धा से पाँव छुए

ये कैसी जनसेवा जो भोली जनता की मिट्टी ही कूट गई
ऐसी करतूतों पर ....

बस ऊपर ही ऊपर उजले हैं
गहरे दिखते थे पर उथले हैं
इनसे क्या उम्मीदें बाँधे हो
सब के सब स्वारथ के पुतले हैं

कोई रैना आकर भर दुपहर दिवसों का उजियारा लूट गई
ऐसी करतूतों पर ....

अर्थ नियोजन फोकट में जाते
अंधों का पीसा कुत्ते खाते
ऊपर से रूपया जो चलता है
नीचे तक दस पैसे आ पाते

नल के नीचे रक्खे हो ऐसी गगरी जो पेंदी से फूट गई
ऐसी करतूतों पर ....