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गुड़िया की शाम / नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती

आषाढ़ की शाम को वे फिर लौट आती हैं
लौट आती हैं वे
काग़ज़ की प्रमुदित नाव
सफ़ेद मिट्टी की बिल्ली — जिसके मुँह में हिल्सा का बड़ा-सा टुकड़ा है
लौट आते हैं —
लकड़ी के जिराफ़, शेर, काकातुआ, लाड़ली गुड़िया
उड़ती हुई किन्नरियाँ, घास-पात और कपड़े से फूल उठी मोटी सास
तरुणी बहू, फूल, लताएँ
क्रोशिए से बना कमल,
एक दिन तो लौटना ही है जानकर
वे सब आषाढ़ की शाम को
ख़ुशी-ख़ुशी लौट आते हैं
‘याद रखना’— तसवीर के शैशव में।

सहज ही लौट आते हैं सब
समय के काँटे को घुमाकर
फिर से शैशव-दिनों में लौटना
बड़ी ही सहज है,
लकड़ी की अलमारी या चूने से नहीं पोती गई
दीवार का शून्य अवकाश
इसलिए आषाढ़ दिनों में
बड़े ही सहज भाव से
अप्सरा-किन्नरी
जिराफ़-सास-बहू-शेर-काकातुआ की विभा से
भर उठता है।

जैसे अनायास कोई प्राचीन जनता
सारे क़ानूनों से नज़रें बचाकर
शाम की चौरंगी रोड
एक-एक कर निर्विकार भाव से
हाथ में लालटेन लटकाए
ख़ुशी-ख़ुशी पार हो जाती है

मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी