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घृणा / ऋषभ देव शर्मा

बहुत सारे नाम दिये मैंने
अपने आकाश में तुम्हारे उदय को।
कृपया : तुम्हें नहीं जचाँ,
मैत्री :तुम्हें नाकाफी लगा,
 अपनापन : तुम्हें नागवार गुजरा,
प्रेम: तुम्हें पसंद नहीं आया।
लेकिन उस दिन मुझे मिल गया एक शब्द-
अचानक।

मेरी कुरूप दिगंबर देह को देखते ही
एक हिंसक चमक कौंध उठी थी तुम्हारी आँखों में
ओर सफ़ेद बुलबुले तैर आए थे
होंठों के किनारे पर,
उपेक्षा से सिकुड़ गई थी तुम्हारी पैसानी
ओर जबड़े भीच गए थे गुस्से से।
अभिशाप का अभीमंत्रित जल मेरे ऊपर;
और मुझे मिल गया एक शब्द अचानक
घृणा................. !
तुम्हारी घृणा मुझे स्वीकार है
यह मेरी नियति है, मेरे देवता !