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चरण पर धर चरण / अज्ञेय

 चरण पर धर चरण
चरण पर धर सिहरते-से चरण,
आज भी मैं इस सुनहले मार्ग पर-
पकड़ लेने को पदों से मृदुल तेरे पद-युगल के अरुण-तल की
छाप वह मृदुतर जिसे क्षण-भर पूर्व ही निज

लोचनों की उछटती-सी बेकली से मैं चुका हूँ चूम बारम्बार-
कर रहा हूँ, प्रिये, तेरा मैं अनुकरण
मुग्ध, तन्मय-
चरण पर धर सिहरते-से चरण।
पाश्र्व मेरा-
किन्तु इस से क्या कि मेरे साथ चलता कौन है,
जब कि वह है साथ मेरी यन्त्र-चालित देह के,

और मैं-मेरा परम तम तत्त्व वलयित साथ तेरे प्राण के :
जब कि आत्मा यह अनाहत और अक्षत,
चरण-तल की छाप के उस कनक-शतदल कमल से
बिछुड़ी अकेली दोल पंखुड़ी में चमकती

लोल जल की बूँद-सा पर-ज्योति-गुम्फित,
तद्गत और अतिश: मौन है!

बरेली-काठगोदाम (रेल में), अक्टूबर, 1941