Last modified on 20 मार्च 2014, at 09:42

चेतावनी / हरिऔध

पिस रहा है आज हिन्दूपन बहुत।
हिन्दुओं में हैं बुरी रुचियाँ जगीं।
ऐ सपूतो, तुम सपूती मत तजो।
हैं तुम्हारी ओर ही आँखें लगीं।

हो गया है क्या, समझ पड़ता नहीं।
हिन्दुओ, ऐसी नहीं देखी कहीं।
खोल कर के खोलने वाले थके।
है तुमारी आँख खुलती ही नहीं।

हिन्दुओ, जैसी तुम्हारी है बनी।
बेबसी ऐसी बनी किस की सगी।
जागने पर जो लगी ही सी रही।
कब किसी की आँख ऐसी है लगी।

देख कर बेचारपन से तंग को।
आप तुम बेचारपन से मत घिरो।
हो बचा सकते उन्हें तो लो बचा।
हिन्दुओ, आँखें बचाते मत फिरो।

छीजते ही जा रहे हो हिन्दुओ।
भाइयों को पाँव से अपने मसल।
है उसी का मिल रह बदला तुम्हें।
बेतरह आँखें गई हैं क्यों बदल।

हिन्दुओ, हाथ पाँव के होते।
जब कि है बेबसी तुम्हें भाती।
तो भला क्यों न फेर में पड़ते।
दैव की आँख क्यों न फिर जाती।

फल फले बैर फूट के जिस में।
दूध से बेलि वह गई सींची।
देख कर नीचपन तुम्हारा यह।
हिन्दुओ, आँख हो गई नीची।

सब जगह बे-जागतों को भी जगा।
आज दिन जो जोत जगती है नई।
तब भला कैसे हमारे दिन फिरें।
जब हमारी दीठ उस से फिर गई।

है अगर जीना जियें जीवट दिखा।
या कि अब हम मौत कुत्तो की मरें।
पिट गये जितना कि पिट सकते रहे।
अब भला रो पीट कर के क्या करें।

सूझता है न क्या है हो रहा।
और लम्बी तान कर हैं सो रहे।
हाथ धोना सब सुखों से ही पड़ा।
क्या अजब जो आज हैं रो धो रहे।

थे समझते जाति-हित-रुचि-बेलि को।
कर सकेंगे हम हरी आँसू चुआ।
वह पनपने भी अगर पाई नहीं।
कुछ न तो रोने कलपने से हुआ।

जी लगा जाति के सुनो दुखड़े।
सच्च कहते हुए डिगो न डरो।
एक क्या लाख जोड़बन्द लगे।
बन्द तुम कान मुँह कभी न करो।

दम अगर तोड़ना पड़े हीगा।
किस लिए तो बिचार को छोड़ें।
क्यों बड़े ही हरामियों का सिर।
तोड़ते तोड़ते न दम तोड़ें।

घोंटते जो लोग हैं उस का गला।
क्यों नहीं उन का लहू हम गार लें।
है हमारी जाति का दम घुट रहा।
हम भला दम किस तरह से मार लें।

धूल में मरदानगी अपनी मिला।
लात हिम्मत को लगा जीते मरें।
है अगर हम में न कुछ दम रह गया।
तो भरोसा और के दम का करें।

टूट जावे मगर न खुल पावे।
इस तरह से कमर कसें बाँधों।
जाति का काम साधती बेला।
दम निकल जाय पर न दम साधों।

छोड़ दें पेचपाच की आदत।
बीच का खींचतान कर दें कम।
तोड़ कर औ मरोड़ कर बातें।
जाति का क्यों गला मरोड़ें हम।

है कसर कौन सी नहीं हम में।
है भला कौन इस तरह लुटता।
जब हमीं घोट घोट देते हैं।
तब गला जाति का न क्यों घुटता।

जो उन्हें गोद में नहीं लेते।
जो गले से नहीं लगाते हो।
बेबसों पर छुरी चला कर के।
क्यों गले पर छुरी चलाते हो।

जो निबाहो नेह के नाते न तुम।
जो न रोटी बाँट कर खाओ जुरी।
तो छुरी बेढंग आपस में चला।
मत गले पर जाति के फेरो छुरी।

जो पिलाते बन सके तो दो पिला।
वह निराला जल की जिस से हो भला।
प्यास सुख की बेतरह है बढ़ गई।
आस का है सूखता जाता गला।

तब भला किस तरह बसेंगे हम।
जब कि होवे न देस ही बसता।
तब हमारा गला फँसेगा ही।
जब कि है जाति का गला फँसता।

मौत का जो पयाम लाती है।
क्या न है आ रही वही खाँसी।
जब गले फँस गये कुफंदे में।
क्या गले में न तब लगी फाँसी।

चाहिए कुछ दबंगपन रखना।
दब बहुत दाब में न आयें हम।
बेसबब दबदबा गँवा अपना।
जाति का क्यों गला दबायें हम।

हैं बुरे फ़ंद बहुत फ़ैले हुए।
जाल कितने बिछ गये हैं बरमला।
बेतरह तुम आप भी फँस जाओगे।
जाति का हो क्यों फँसा देते गला।

बात है यह बहुत बड़े दुख की।
हम अगर बेतरह कभी बढ़ दें।
कूढ़पन बात बात में दिखला।
मूढ़पन जाति के गले मढ़ दें।

सोच सामान अब करो सुख का।
दुख बहुत दिन तलक रहे चिमट।
गा चलो गीत जाति-हित के अब।
गा चुके कम न दादरे खेमटे।

फिर भला किस तरह हमारी रुचि।
देश-हित राग रंग में रँगती।
सावनी है सुहावनी होती।
लावनी है लुभावनी लगती।

जाति-हित के बड़े अनूठे पद।
हम बड़ी ही उमंग से गावें।
अब बहुत ही बुरी ठसकवाली।
ठुमरियों की न ठोकरें खावें।

क्यों जगाये भी नहीं हो जागते।
आज दिन सारा जगत है जग गया।
लाग से ही जाति-हित गाड़ी खिंचे।
लग गया कंधा बला से लग गया।

क्यों कसकती नहीं कसक जी की।
क्यों खली आज भी न कोर कसर।
है बुरी चाट लग गई तो क्या।
अब रहें नाचते न चुटकी पर।

चूकते ही चूकते तो सब गया।
चूक कर खोना न अब घर चाहिण्।
नटखटों की चाट, जी की चोट को।
क्या उड़ाना चुटकियों पर चाहिए।

जाति का काम हम किये जावें।
क्यों लहू से न बार बार सिंचें।
बिन गये बाल बाल भी न हटें।
खिंच गये खाल भी न हाथ खिंचे।

हो सका क्या न हौसला बाँधो।
जग गये, कौन सा न भाग जगा।
कस कमर कौन काम कर न सके।
लग गये लाग क्या न हाथ लगा।

जाति-हित क्यारियाँ लगे हाथों।
क्यों नहीं आप सींच लेते हैं।
चाहिए इस तरह न खिंच जाना।
किस लिए हाथ खींच लेते हैं।

जाँय कीलें सकल नँहों में गड़।
जाति-हित हौसले न हट पावें।
हाथ लट जाय, शल हथेली हो।
उँगलियाँ पोर पोर कट जावें।

कौर मुँह का क्यों न तब छिन जायगा।
जाँयगी पच क्यों न प्यारी थातियाँ।
पेट कटता देख जब रो पीट कर।
लोग पीटा ही करेंगे छातियाँ।

कढ़ रही हैं तो कढ़ें चिनगारियाँ।
अब न आँखें नीर बरसाती रहें।
कूटते हैं तो बदों को कूट दें।
कट मरें, क्यों कूटते छाती रहें।

हौसले और दबदबे वाला।
क्या नहीं है दबंग बन पाता।
हम किसी की न दाब में आयें।
दिल दबे कौन दब नहीं जाता।

आज दिन तो दौड़ ही की होड़ है।
फिर हमें है दौड़ने में कौन डर।
क्या निगाहें भी नहीं हैं दौड़तीं।
दौड़ता है दिल न दौड़ाये अगर।

माल निगला क्यों उगलवा लें न हम।
है हमें कुछ कम न टोटा हो रहा।
जो निकल पावे निकालें पेट से।
दिन ब दिन है पेट मोटा हो रहा।

कौड़ियाँ पैसे हमारे क्यों लुटें।
वे रहें कैसे किसी की टेंट में।
लें उगलवा माल पकड़ें फेंट हम।
पेट में है तो रहे क्यों पेट में।

दुख न भोगें उखाड़ दें उस को।
है अगर जम गया हिला डालें।
लाभ क्या टालटूल से होगा।
जो सकें टाल पाँव को टालें।

नाक रगड़े मिटें नहीं रगड़े।
माथ क्या पाँव पर रगड़ करते।
दो रगड़ जो रगड़ सको खल को।
पाँव क्या हो रगड़ रगड़ मरते।