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जग में हैं अगणित दीप जले / अज्ञेय

 जग में हैं अगणित दीप जले।
वे जलते-जलते जाते हैं, फिर निर्वापित हो जाते हैं,
तब जग उन्हें बहा आता है;
उस को उन का मोह नहीं है-'जल-जल कर फिर बुझना ही है,

इस गति से छुटकारा बोलो कौन कहाँ पाता है?'
कुछ भी हो, पर आज उधर जग में हैं अगणित दीप जले!
एक खड़ी हूँ मैं भी ले कर जो न कभी आलोकित होगा-
प्यार जगाता है, पीड़ा का जलना भी होगा अँधियारा-
मुझे घेर बहती जाती है एक विषैली धूमिल तारा।

खोना भी खो कर रोना भी, यह किन पापों का फल भोगा!
किन्तु उधर जग में हैं अगणित दीप जले!
एक ओर सारी जगती की ज्योतिर्माला-
और इधर, यह पीड़ा-अम्बर काला!

फिर भी, मैं भी दीपक थामे खड़ी हुई हूँ,
स्मृति की स्पन्दित टीसों ही से जीवित पड़ी हुई हूँ...
और उधर जग में हैं अगणित दीप जले!
आज, जगत् की सुन्दरता जब छीन ले गया पतझर-

उसे भुलाने वह जाता है ये सब अगणित दीप जला कर।
इधर खड़ी मैं सोच रही हूँ-
जिसे भूलना है, उस का ही आश्रय ले कर उसे भुलाना!
मैं ऐसी विफला चेष्टा में निरत नहीं हूँ!

यदपि आज जग में हैं अगणित दीप जले!
पतझर, पतझर, पतझर, पतझर...
गिरते पत्तों का यह अविकल सरसर,
कहता जाता है-सुन्दरता नश्वर, नश्वर!

मेरे हाथों का यह दीपक, मेरे प्राणों का यह स्पन्दन,
तड़प-तड़प कर करता जाता उस का खंडन!
गये दिनों में भी, नहीं जब पात झरे थे,
डार-डार पर जब फूलों के भार भरे थे,

अवनी-भर पर खेल रही थीं यौवन-जीवन की छायाएँ
मृदु अनामिका से मलयानिल
देता भाल-बिन्दु-सा परिमल,
गले-गले में डाल-डाल जाता सौरभ-मालाएँ!-

गये दिनों में कभी, अपरिचित एक बटोही आया,
उस के निर्मम हाथों मैं ने दीप एक बस पाया।
अंक छिपाये, भर-भर स्नेह लिये यह अभी खड़ी हूँ
और पात झरते जाते हैं, और, नहीं वह आया!

और उधर जग मैं हैं अगणित दीप जले!
बुझे-अनजले दीपक! मेरे जीवन की सुन्दरते!
अब अपने संकेत! नहीं क्यों छूट हाथ में गिरते!
गया बटोही, बीता मधु भी, फूल हो गये स्मृतियाँ

अब सूखी जीवन-शाखा के पात-पात हैं झरते!
पर जीवन-सर्वस्व! रहो बन मेरे एक सहारे
जग के दीपक एक-एक निर्वापित होंगे सारे!
वे मरणोन्मुख सफल-और तुम असफल जीवन-आतुर,

तुम पीड़ा हो, पर अजस्र; वे सुख हैं पर क्षणभंगुर!
मैं हूँ अन्धकार में पर विश्वास भरी हूँ रोती-
पीड़ा जाग रही है यद्यपि दीप-शिखा है सोती-
वे सब-विधि से गये छले-जग में हैं अगणित दीप जले!

1935