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जाल के खिलाफ / संतोष श्रीवास्तव

जाल केवल उलझाव नहीं है
वह समेट लेता है सब कुछ और बाँट देता है फिसल गये सुखों से रिक्त हथेलियों को जाल ले ही लेता है लहरों से कुछ् न कुछ समँदर के वक्ष पर शाँत फैला जाल वह फैला नहीं होगा तो समेटेगा कैसे? जाल भी तो परवश है फैलाए जाने और
समेट लिये जाने के बीच कोई यूँ ही तो नहीं देता कुछ कहीं न कहीं
बनी रहती है आस समेटने और देने के बीच
जाल तो बस
गिरफ्त जानता है
नहीं जानता
गिरफ्त से पहले का संघर्ष
इस संघर्ष से गुजरते वक्त
कितनी ही बार
पस्त होने के बावजूद
मुझे उठा कर खड़ा कर देता है
मेरे अंदर का युद्ध
जाल के खिलाफ