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जितने भी लोग मुझे कल सरे बाज़ार मिले / कुमार अनिल

जितने भी लोग मुझे कल सरे बाज़ार मिले
सब किसी और की अस्मत के ख़रीदार मिले

अहले गुलशन की भी नीयत पे यकीं क्या करते
फूल के परदे में जब हमको सदा ख़ार मिले

वे जिन्हें इल्म नहीं कुछ भी हवा के रुख़ का
आज हाथों में लिए कश्ती ओ पतवार मिले

जिस तरफ जाइये इक ख़ौफ़ज़दा आलम है
हर तरफ सर पे लटकती कोई तलवार मिले

बात करते थे जो आकाश को छूने की कभी
वक़्ते परवाज़ परिंदे वही लाचार मिले

हमने जो छत की मुंडेरो पे सजाए थे दीये
शाम होते ही जो देखा पसे दीवार मिले

ग़म से निस्बत ही कुछ ऐसी थी कि ठुकरा न सके
मिलने को राह में ख़ुशियों के भी अम्बार मिले

कौन टकराता भला बढ़ के हक़ीक़त से अनिल
सब ही इस दौर में ख़्वाबों के परस्तार मिले