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टुकड़े ख़तों के / शेखर सिंह मंगलम

दो चार टुकड़े ख़तों के बचे हैं
दिल के दराज़ में
लिखावट की स्याही फैल गई
माज़ी से सीखा मैंने
एहसास ख़त पर लिखा फैली स्याही है
सफ़हें किसी बूढ़े आदमी के
टूटे दांत से निकलते झाग के मानिंद
बीते पलों की बोसीदा तस्वीर,
आने वाले वक्त के बदन पर भी कांटें हैं
तवारीख़ चश्मदीद है कि
जब-जब कोई हरा-भरा पेड़ तूफ़ान से गिरा है
दरख़त, टहनी, फल, फूल, पत्ते सब
ज़मीनदोज हो गए हैं मगर
उन पेड़ों का क्या जो
तूफ़ान से नहीं गिरे बल्कि
जड़ों से काट दिए गए
फ़िज़ूल ज़रूरत और ज़िद के लिए?
शायद, कटे पेड़ों के कुछ बीज
मुस्तक़बिल में उगेंगे-जैसे
बचे दो चार ख़तों के टुकड़ों से नए एहसास...