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तीन पड़ोसी / उषा उपाध्याय

सो गया था आधी रात को जब
सारा घर
तब आलस मरोड़ कर जाग उठीं
पनसाल की मटकी और तुलसी-चौरा की ईटें,

शुरू की उन्होंने गोष्ठी
घर-मंदिर की मिट्टी की मूर्ति के साथ
कुमकुम से रुँधते-स्वर में ईंट बोली
और बोली आर्द्र-स्वर में मटकी
उन्होंने मूर्ति से किया निवेदनः
"हमे वस्तुओं के बारे में कुछ बताइये"

चंदन की अर्चना और धूप-दीप से महकती साँस के साथ
मूर्ति बोलीः
"सुनो हे गृहवासिनियों,
वस्तुएँ होती हैं जड़, अचेतन
अपनी ईच्छा के अनुसार कुछ करने की
अनुमति नहीं होती है उन्हे।"

वस्तुओं की एक ही नियति होती है –
बनना, उपयोग में आना, टूटना
और फेंक दिया जाना ।

उस रिबन को देखो
किसी समय यह था
चमकीला और रंगबिरंगा
फिर उसे काटा गया, सिला गया, पहना गया
और वह हो गया बेरंग और बेआब, मैला

तब उसे फेंक दिया गया
घर के अँधेरे तहख़ाने में,
तहख़ाने में इसके साथ ही पड़ी हैं
वे कुर्सियाँ;

किसी ज़माने में
इसके हत्थे थे
हवा में मंद-मंद लहराते वृक्ष की
हरी-हरी टहनियाँ
पर फिर
वे काटी गईं, चीरी गईं, रंगी गईं,
और बनाई गई कुर्सियाँ,

शुरु-शुरु में तो कितनी ख़ुश थीं वह
अपनी नूतन शोभा से !
कैसे रोब से सजी रहती थीं
और बैठती थीं वह
दीवानखाने के उजाले में !

लेकिन,
उसे पता भी न चला
इस तरह
काचकागज जैसे दिनों ने
घिस डाला उसे,
हत्था टूटा और फिर
हिल गया इसका पाया
"अरे, ऐसी टूटी-फूटी कुर्सी अब
किस काम की ?"

वक्र-भृकुटियों ने यों कह कर
डाल दिया उसे तहख़ाने में...
तो सुनो –
वस्तुएँ वस्तुएँ होती हैं,
बनना, काम आना, टूटना और फैंक दिया जाना
यही है इन की नियति...

भोर का सूरज देहरी की ज़ंजीर खटखटाए
इससे पहले –
तीनों ही
हो गई पुनः
निद्राधीन, जड़, स्थिर...