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त्राहि माम / मनोज कुमार झा

शीशे आकर्षक दीवारें भी
आवाज़ें आकर्षक सारी
चिपका हुआ स्टीकर कि मूल्य भी आकर्षक
पीने का पानी तक आकर्षक
मैं झेल नहीं पा रहा आकर्षणों का ताप
मेरे थर्मामीटर में इतनी दूर की गिनती नहीं

कई सहस्त्र पीढ़ियों से झूल रहा हूँ ग्रह-नक्षत्रों के आकर्षणों के मध्य
सबसे कड़ा खिंचाव तो इस धरती का ही
जैसे तैसे निभाता कभी बढ़ाता दो डग तो कभी लगती ठेस
नाचता शहद और नमक के पीछे

आचार्य ! कौन रच रहा है यह व्यूह
मुझे बस रहने लायक जगह हो
और सहने लायक बाज़ार
जहाँ से अखंड पनही लिए लौट सकूँ