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दिल के फफोले / हरिऔध

पौ फटी है निकल रहा सूरज।
हैं सभी लोग ढंग में ढलते।
देख करके मलाल होता है।
आप हैं आँख ही अभी मलते।

लड़ पड़े पोत के लिए सग से।
दूसरे लूट ले चले मोती।
एक क्या लाख बार देखे भी।
आँख इस की हमें नहीं होती।

दिन गये सिंह मार लेने के।
है भला कौन मार मन पाता।
मारते हैं जमा पराई अब।
है हमें आँख मारना आता।

साँसतें देख देख अपनों की।
चोट जी ने न भूल कर खाई।
डूबता देख जाति का बेड़ा।
कब कभी आँख डबडबा आई।

दिन ब दिन हम घट रहे हैं तो घटें।
लुट रही हैं तो लुटें पौधें नई।
कुछ न चारा है बिचारी क्या करे।
जाति की है आँख ही चरने गई।

क्या कहें किस से कहें जायें कहाँ।
हैं बिगड़ते कुछ भी बन आई नहीं।
दौड़ में हम हैं बहुत पीछे पड़े।
पर किसी ने आँख दौड़ाई नहीं।

ठोंक कर के या कि दे दे थपकियाँ।
और भी दें नौनिहालों को सुला।
खुल रहा है दिन ब दिन परदा मगर।
आँख का परदा नहीं अब भी खुला।

रंग बिगड़ा कम न, बेसमझी मगर।
रंग में अपने सदा भूली रही।
हैं हमीं कुछ इस तरह के सिर-फिरे।
आँख में सरसों सदा फूली रही।

जिन दिनों लू से लपट से धूप की।
फूल पत्ता है झुलसता जा रहा।
आँख में ही कुछ कसर है, उन दिनों।
आँख में टेसू अगर फूला रहा।

फिर नहीं तो कलंक के धब्बे।
जाति क्यों जी लगा नहीं धोती।
वह भला देख कुछ सके कैसे।
आँख ही है जिसे नहीं होती।

तुल गई ढील लील लेने को।
सूझ तब भी सबील पर न तुली।
बँध गये, और हैं बँधे जाते।
पर बँधी दीठ आज भी न खुली।

तो बुरी दीठ किस तरह लगती।
किस लिए आग जाति में बोती।
जो किसी देव-दीठ वाले की।
दीठ से दीठ जुड़ गई होती।

दुख पड़े पर ठीक वह सँभली नहीं।
राह उस ने कब सजग होकर गही।
चूक अपनी कब समय पर देख ली।
दीठ सब दिन चूकती ही तो रही।

अब न धन है न मान ही वह है।
और क्या क्या कहाँ कहाँ खोवें।
लाख में एक लख पड़ा न हितू।
हम न कैसे बिलख बिलख रोवें।

पाट सकते एक नाली भी नहीं।
रीस उन की जो नदी हैं पाटते।
काटते हैं होठ उन को देख कर।
कान उन का क्या भला हम काटते।

जाति का ढाढ़ मार कर रोना।
देस पर है विपत्तियाँ ढाता।
सुन उसे कान के फटे परदे।
कान अब तो दिया नहीं जाता।

हैं हमारे न कारनामे कम।
फूट के बीज बेतरह बोये।
जाति को भेज कर रसातल में।
कान में तेल डाल कर सोये।

कुछ अजब हाल है बतायें क्या।
खुल न आँखें सकीं न उमगा मन।
आ हरापन सका न चेहरे पर।
जा सका कान का न बहरापन।

दुख पड़े धुल गया बदन सारा।
जाति में वह रहा जमाल कहाँ।
है नहीं वह हरा भरा चेहरा।
अब रहा लाल लाल गाल कहाँ।

एक है बातें बनाने में फँसा।
एक है बेढंग झुँझलाया हुआ।
हैं कहाँ वे आप कुम्हला जाँय जो।
जाति का मुँह देख कुम्हलाया हुआ।

एक क्या लाख बार जान पड़ा।
हैं न हम से जहान में कायर।
नाच हम ने न कौन सा नाचा।
कब तमाचा न खा लिया मुँह पर।

जब कभी जाति के दुखों पर हम।
आँख अपनी पसार देते हैं।
है बुरा हाल सोच से होता।
नोच मुँह बार बार लेते हैं।

कर थके सैकड़ों जतन, पर जी।
जाति हित में कभी नहीं सनता।
देखते लोग हैं हमारा मुँह।
मुँह दिखाते हमें नहीं बनता।

इस सितम संगीन साँसत से कहीं।
आज तक कोई छिका नाका नहीं।
क्यों कहें, दिल के फफोलों की टपक।
टूट मुँह का तो सका टाँका नहीं।

आँख जो काढ़ी गई आँसू कढ़े।
जी चुराने के लिए जो जी गया।
जो सितम औ साँसतों की हद हुई।
सी कहे जो मुँह किसी का सी गया।

क्या दबायेंगे भला वे और को।
आप ही जो दूसरों से दब चले।
रख सकेंगे दाब वे कैसे भला।
दाब लें जो दूब दाँतों के तले।

किस तरह रंग तब चढ़े पक्का।
जब कि कच्चा न रंग ही छूटा।
किस तरह दाँत तब मिलें सच्चे।
दाँत ही जब न दूध का टूटा।

धूम के साथ धाकवालों ने।
हैं दिये धाक के लिए धोखे।
और का चीख चीख कर लोहू।
दाँत किस के न हो गये चोखे।

जी हमारा बहुत गया कुम्हला।
जी कहाँ से खिला हुआ ले लें।
है न हँसते न खेलते बनता।
हम भला किस तरह हँसें खेलें।

झेलते यों ही रहेंगे क्या सदा।
आज दिन हैं जिस तरह दुख झेलते।
क्या न खेलेंगे हँसेंगे उस तरह।
हम रहे जैसे कि हँसते खेलते।

हम जिसे खोल भी नहीं सकते।
किस तरह से भला उसे खोलें।
बेतरह जब पिटा लिया उस को।
कौन मुँह से भला हँसें बोलें।

मान मरजादा मिटा कर जाति की।
इस जगत में जो जिये तो क्या जिये।
नाम की वह प्यास मिट्टी में मिले।
जो कि बुझ पाई न बातों के पिये।

नीच को तो बिठा लिया सिर पर।
ऊँच की चोटियाँ गईं नोची।
हो गया दूर जाति का सब दुख।
दूर की बात है गई सोची।

भूख कितनों का लहू है पी रही।
रोग कितनों का लहू है गारते।
लोग हैं बे मौत लाखों मर रहे।
हम नहीं हैं आह तब भी मारते।

जा रही हैं सूखती सारी नसें।
पर लगी जोंकें गईं घींची नहीं।
बेतरह है जाति का खिंचता लहू।
आह हम ने आज भी खींची नहीं।

दिल हुआ ठंढा, लहू ठंढा हुआ।
देख ठंढे आँख की ठंढक बढ़ी।
हो चले हम बेतरह ठंढे मगर।
आह ठंढी तो नहीं अब भी कढ़ी।

किस तरह वे उन्हें जलायेंगी।
जो सितम ढूँढ़ ढूँढ़ कर ढाहें।
जब हमीं में न रह गई गरमी।
क्या करेंगी गरम गरम आहें।

जाति-बेचैनियाँ हमें अब भी।
आह! निज रंग में नहीं रँगतीं।
तार बँधाता न आँसुओं का है।
आज भी हिचकियाँ नहीं लगतीं।

रंगरलियों की जहाँ पर धूम थी।
आँसुओं की है बही धारा वहाँ।
आज गरदन बेतरह है नप रही।
पर हमारी फिर सकी गरदन कहाँ।

क्या बखेड़े हैं नहीं पीछे पड़े।
क्या कड़ी आँखें न दुखड़ों की लखी।
धार तीखी क्या कँपाती है नहीं।
क्या उठी तलवार गरदन पर रखी।

जाति-हित-गाड़ी न दलदल से कढ़ी।
चाहिए था जो न करना वह किया।
जब कि कंधा था लगाना चाहता।
आह! हम ने डाल तब कंधा दिया।

घिस चुके जितना कि घिस सकते रहे।
लाभ क्या अब एड़ियाँ अपनी घिसे।
आग ही उस पीसने में जाय लग।
जिस पिसाई में पड़े उँगली पिसे।

कम नमूने न हैं मुसीबत के।
कम सितम के बने न साँचे हैं।
आज तो वे तमक तमक कर के।
बेतरह मारते तमाचे हैं।

आज हूँ बार बार मैं गिरता।
सामने हैं बहुत बुरे नाले।
थामते हाथ क्यों नहीं मेरा।
हैं कहाँ हाथ थामनेवाले।

कौन सा कारबार छूट सका।
है बहुत अबतरी नहीं जिस में।
क्या बच रह गया बिचार करें।
मौत का हाथ है नहीं किस में।

लोग बेजान बन गये जब हैं।
जब मरे मन मिले, न जाग जगे।
तब हमारे हरेक मनसब पर।
क्यों मुहर मौत हाथ की न लगे।

क्यों न तो मेल जोल लट जाता।
एकता क्यों न छटपटा जाती।
देख कर नाक जाति की छिदती।
छरछराती अगर नहीं छाती।

आप अपनी जड़ हमीं जब खोद दें।
किस तरह हम तब भला फूलें फलें।
जब दलाते हैं हमीें दिल थाम तो।
लोग कोदो क्यों न छाती पर दलें।

बेतरह टूट टूट करके हम।
हो रहे हैं समान रेजे के।
पास होते हुए कलेजा भी।
हैं हमीें लोग बे कलेजे के।

कब सताये गये नहीं दुखिये।
ला उन्हीं पर सका बला बिल भी।
बाल ही है पका नहीं मेरा।
देखते देखते पका दिल भी।

रुक सके रोके न परहित के लिए।
जातिहित पर ठीक जम पाये नहीं।
देसहित पथ पर थमा कर थक गये।
ए हमारे पाँव थम पाये नहीं।

क्या बचा छोड़ एक लोप ललक।
आ गई अब तरी नहीं जिस में।
खोल कर आँख की पलक देखें।
है नहीं मौत की झलक किस में।