Last modified on 3 सितम्बर 2015, at 13:03

दो ध्रुवों के बीच / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

दो अपरिचित भी नहीं,
हैं सिर्फ़ दो अजनबी, अनजाने-
रहे अज्ञात क्षण से असम्बद्ध किसी निमिष तक
किन्तु अपरस्पर नहीं कोई कहीं जीता :
बंधे इतिहास से हैं स्थान
से हैं बंधी संख्याएँ
सदा बाँधे प्रकार
बाँधे रूप
बाँधे नाम l
गुण में l
गुण-परस्पर, सुसम्बद्ध, विश्रुत, अभिन्न, अटूट l
तो शायद किसी का अपरिचित रहना असम्भव है l
तभी हम अपरिचय का उभयनिष्ठ समय व्यतीत किये,
हुए परिचित गुणों से, नाम से, रूचि से,
अमित सम्भावनाओं से, प्रयासक स्वप्न से !
हम परस्परता प्राप्त कर भी रह गए हैं
दो ध्रुवों पर, भिन्न - !
जो कुछ है विदित या बाहरी अभिव्यक्ति,
उससे मौन अन्तस् का न मिलता बिम्ब;
यों हम दो ध्रुवों के बीच उलझी प्रक्रिया की
व्याख्या में जी रहे या मर रहे –
अनुमान के अनुमान के – अनुमान – के अनुमान के –
अनुमान को l