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नरक हो गई है ससुराल में ज़िन्दगी मेरी / हब्बा ख़ातून / सुरेश सलिल

नरक हो गई है ससुराल में ज़िन्दगी मेरी
इससे उबारो मुझे, ओ मिरे अब्बू-अम्मी !

पानी ला रही थी जब मैं, अचानक घड़ा फिसला
और गिरकर टूट गया,
अब मुझे दूसरा घड़ा लाना पड़ेगा
या चुकाना होगा घड़े का मोल, मिरे अब्बू-अम्मी !

नरक हो गई है ससुराल में ज़िन्दगी मेरी

चढ़ना उतरना पठार पर इतना मुश्किल
कि छीजती लगे हैं उभरती जवानी मेरी ।
टूटे घड़े के टुकड़े बटोरते
एक टुकड़ा मेरे पाँव में गड़ गया,
नमक छिड़के जैसा अब तक टीसता है ज़ख़्म, मिरे अब्बू-अम्मी !

नरक हो गई है ससुराल में ज़िन्दगी मेरी

चर्खा चलाते वक़्त नींद ने यूँ घेरा
कि हत्था टूटकर अलग उसका हो गया।
दौड़ी दौड़ी आई सास,
झोंटा पकड़ मुझे यूँ झकझोर डाला
कि उससे तो मौत ही बेहतर, मिरे अब्बू-अम्मी !

नरक हो गई है ससुराल में ज़िन्दगी मेरी

किस क़दर तरह रही मैं इक दिलनशीं के लिए
कि ये आँखें मेरी तोड़े डाल रहीं अपने सारे कगारे ।
इसी तरह फ़क़त बता सकती है हब्बा ख़ातून
दिल की हालत अपने, बहुत बहुत प्यारे ओ मिरे अब्बू-अम्मी !

नरक हो गई है ससुराल में ज़िन्दगी मेरी
इससे उबारो मुझे, ओ मिरे अब्बू-अम्मी !

मूल कश्मीरी से अनुवाद : सुरेश सलिल