Last modified on 16 जुलाई 2013, at 18:19

नर-नारी / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

देख चंचलता चपला की
गरजते मेघों को पाया;
बिखर जाती है घन-माला,
वायु का झोंका जब आया।
देख करके रवि को तपता।
दु्रमों में छिपती है छाया।
चंद्रमा के पीछे-पीछे
चाँदनी को चलते पाया।
गोद में गिरिगण के बैठी
घाटियाँ शोभा पाती हैं;
दौड़ती जा करके नदियाँ
समुद्रों में मिल जाती हैं।
अंक में उपवन के विरची
क्यारियाँ कांत दिखाती हैं;
पादपों के सुंदर तन में
बेलियाँ लिपटी जाती हैं।
साथ जलते दीपक का कर
बत्तियाँ जलती रहती हैं;
सितम मतवाले भौंरों का
तितलियाँ सहती रहती हैं।
मोतियों की माला अपनी
भोर को रजनी देती है;
अरुण का मुख देखे ऊषा
माँग अपनी भर लेती है।
देख कुसुमाकर को कोयल
गीत है बड़े मधुर गाती;
मंजु मलयानिल से मिलकर
महँक है मोहकता पाती।
सामना उजियाले का कर
भाग जाती है अँधियारी
गगन-तल के नीलापन में
विलसती रहती है लाली।
फूल को हँसता अवलोके।
कब नहीं कलियाँ खिल जातीं;
कलेजा उनका तर करने
ओस की बूँदें हैं आतीं।
रंगतों से तारक-चय के
ज्योति रंजित बन जाती है;
देख राका-पति को निकला
बिहँसती राका आती है।