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नित्य ही सन्ध्या को / अज्ञेय

नित्य ही सन्ध्या को, कुमुदिनी स्वप्न में देखा करती है कि चन्द्रोदय हो गया है, और वह अभी सोयी पड़ी है, और चन्द्र आ कर अपने शुभ्र, कोमल, हिम-शीतल ज्योत्स्ना-करों से उसे उठा कर कहता है, 'प्रिये, अभी उठी नहीं?'
इस कल्पना से उस का अलसाया हुआ शरीर सिहर उठता है।
पर नित्य की सन्ध्या को, कुमुदिनी निराशा की विवशता से उत्पन्न आशा ले कर अपने हृदय की मधु-मंजूषा खोल कर, शशि के आने से पहले ही सत्कार-तत्पर हो कर खड़ी हो जाती है।
जो कल्पना स्वयं अपने विनाश का आधार होती है, वह वास्तविकता के निर्माण में सहायक नहीं होती!

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