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पथरा गई आँखें / बुद्धिनाथ मिश्र

उत्खनन में जब मिले अवशेष
वर्जना-दंशित समर्पण के
देखकर पथरा गईं आँखें ।

कमल-दल की बंद मुट्ठी खोल
'स्वस्ति' तक लिख सो गए खगपंख
जग उठे ज्यों शापनिद्रा-मुक्त
कल्पतरु वनदेवता के अंक

थरथराते होठ के संदेश
यों जड़े थे साथ दर्पण के
देखकर पथरा गईं आँखें ।

चंद्रमुख पर रचे हल्दी-लेप
धो, हुई पीली समय की धार
सम्पुटित दृग में मिले हिमदग्ध
मदन के शर, उमा का शृंगार

बन गये थे नखक्षत विधुलेख
गीत सारे निशा-वंदन के
देखकर पथरा गईं आँखें ।

उड़ गया कुछ देर सहकर धूप
स्थिर शिखा-सी मानिनी का रंग
चल सका बिछलन भरे इस पंथ
कौन ब्रज से द्वारका तक संग ?

राधिका को टेरते अनिमेष
दो नयन शरविद्ध मोहन के
देखकर पथरा गईं आँखें ।