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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / तृतीय सर्ग / पृष्ठ - २

(3)

शार्दूल-विक्रीडित

कोई है कहता, अनन्त नभ में ये दिव्य ता नहीं।
नाना हस्त-पद-प्रदीप्त नख हैं व्यापी विराटांग के।
कोई लोचन वन्दनीय विभु का है तीन को मानता।
राका-नायक को, दिवाधिकपति को, विभ्रद्विभावद्रि को॥1॥

वंशस्थ

असंख्य हैं शीश, असंख्य नेत्र हैं।
असंख्य ही हैं उसके पदादि भी।
कहें न कैसे यह भूत मात्र में।
निवास क्या, है न, जगन्निवास का॥2॥

(4)

गीत

सब काल कौन श्यामल तन।
है बहुविध वाद्य बजाता।
किसलिए सरस स्वर भर-भर।
है मधुमय गीत सुनाता॥1॥

है कर-विहीन कहलाता।
है नहीं उँगलियोंवाला।
पर सुन उसकी वीणाएँ।
भव बनता है मतवाला॥2॥

है बदन नहीं जब उसके।
तब अधर कहाँ से लाता।
पर बजा मुरलिका अपनी।
मन को है मत्त बनाता॥3॥

यद्यपि अकंठ है तो भी।
वह कुंठित नहीं दिखाता।
अगणित रागों को गा-गा।
है रस का स्रोत बहाता॥4॥

ऐसी लाखों वीणाएँ।
पल-पल हैं बजती रहती।
या विपुल वेणु-स्वर-लहरी।
रसमय बन-बन है बहती॥5॥

क्या बात वेणु वीणा की।
ऐसे ही अगणित बाजे।
बजते रहते हैं प्रति पल।
ध्वनि वैभव मध्य विराजे॥6॥

अनवरत सुधा बरसा कर।
जो गीत गीत हैं होते।
वे निधिक उन ध्वनियों के हैं।
निकले जिनसे रस-स्रोते॥7॥

भव कंठ रसीले सुन्दर।
बहु तरुवर मेरु गुहाएँ।
सब यंत्र अनेकों बाजे।
सागर सरवर सरिताएँ॥8॥

कैसे उसके साधन हैं।
वह कैसे क्या करता है।
कामना-हीन हो कैसे
बहु स्वर इनमें भरता है॥9॥

बतला न सकें हम जिसको।
कैसे उसको बतलायें।
जो उलझन सुलझ न पाई।
किस तरह उसे सुलझायें॥10॥

(5)

शार्दूल-विक्रीडित

कंठों का बन कंठ मूल कहला तानों लयों आदि का।
नादों में भर के निनाद स्वर के स्वारस्य का सूत्र हो।
दे नाना ध्वनि-पुंज को सरसता, आलाप को मुग्धता।
गाता है नित कौन गीत किसका बाजे करोड़ों बजा।

प्रभाकर

(1)

गीत

विहँसी प्राची दिशा प्रफुल्ल प्रभात दिखाया।
नभतल नव अनुराग-राग-रंजित बन पाया।
उदयाचल का खुला द्वार ललिताभा छाई।
लाल रंग में रँगी रँगीली ऊषा आयी॥1॥

चल बहु मोहक चाल प्रकृति प्रिय-अंक-विकासी।
लोक-नयन-आलोक अलौकिक ओक-निवासी।
आया दिनमणि अरुण बिम्ब में भरे उजाला।
पहन कंठ में कनक-वर्ण किरणों की माला॥2॥

ज्योति-पुंज का जलधिक जगमगा के लहराया।
मंजुल हीरक-जटित मुकुट हिमगिरि ने पाया।
मुक्ताओं से भरित हो गया उसका अंचल।
कनक-पत्रा से लसित हुआ गिरि-प्रान्त धरातल॥3॥

हरे-भरे सब विपिन बन गये रविकर आकर।
पादप प्रभा-निकेत हुए कनकाभा पाकर।
स्वर्णतार के मिले सकल दल दिव्य दिखाये।
विलसित हुए प्रसून प्रभूत विकचता पाये॥4॥

पहन सुनहला वसन ललित लतिकाएँ विलसीं।
कुसुमावलि के व्याज बहु विनोदित हो विकसीं।
जरतारी साड़ियाँ पैन्ह तितली से खेली।
विहँस-विहँस कर बेलि बनी बाला अलबेली॥5॥

लगे छलकने ज्योति-पुंज के बहु विधि प्यारे।
मिले जलाशय-व्याज धरा को मुकुर निराले।
कर किरणों से केलि दिखा उनकी लीलाएँ।
लगीं नाचने लोल लहर मिष सित सरिताएँ॥6॥

ज्योति-जाल का स्तंभ विरच कल्लोलों द्वारा।
मिला-मिला नीलाभ सलिल में विलसित पारा।
बना-बना मणि-सौध मरीचि मनोहर कर से।
लगा थिरकने सिंधु गान कर मधुमय स्वर से॥7॥

नगर-नगर के कलस चारुतामय बन चमके।
दमक मिले वे स्वयं अन्य दिनमणि-से दमके।
आलोकित छत हुई विभा प्रांगण ने पाई।
सदन-सदन में ज्योति जगमगाती दिखलाई॥8॥

सकल दिव्यता-सदन दिवस का बदन दिखाया।
तम के कर से छिना विलोचन भव ने पाया।
दिशा समुज्ज्वल हुई मरीचिमयी बन पाई।
सकल कमल-कुल-कान्त वनों में कमला आयी॥9॥

कल कलरव से लोक-लोक में बजी बधाई।
कुसुमावलि ने विकस विजय-माला पहनाई।
विहग-वृन्द ने उमग दिवापति-स्वागत गाया।
सकल जीव जग गये, जगत उत्फुल्ल दिखाया॥10॥