Last modified on 4 सितम्बर 2011, at 00:21

पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / दशम सर्ग / पृष्ठ - २

कहाँ बजाकर वीणा तुम्बुरु सुधा प्रवाहित करता है।
कहाँ गान कर हाहा हूहू ध्वनि में गौरव भरता है।
उनके तालों स्वरों लयों से जो विमुग्धता होती है।
परमानन्द-बीज वह अभिरुचि शुचि अवनी में बोती है॥3॥

जिसकी हरियाली नीलम के मुँह की लाली रखती हैं।
नभ-नीलिमा देखकर जिसको निज कल कान्ति परखती है।
जिसके कुसुम नहीं कुम्हलाते, म्लान नहीं दल होता है।
कहाँ विलस वह फलद कल्पतरु बीज विभव का बोता है॥4॥

जिसका दर्शन सकल दिव्यता-दर्शन का फल देता है।
जिसका स्पर्श पुण्य पथ को बहु बाधाएँ हर लेता है।
विविध सिध्दि-साधना-सहचरी जिसकी पयमय छाती है।
कहाँ सर्वदा वह चिर-कामद कामधेनु मिल पाती है॥5॥

जिसकी कुसुमावलि कुसुमाकर का भी चित्त चुराती है।
जिसकी ललित लता ललामता मूर्तिमती कहलाती है।
वृन्दारक तरुवृन्द देख जिसके फूले न समाते हैं।
कहाँ लोक-अभिनन्दन नन्दन-वन-जैसा बन पाते हैं॥6॥

जो है प्रकृति कान्त कर-लालित, छवि जिसका पद धोती है।
जिसके कलित अंक में विलसे उज्ज्वलतम 'मणि' होती है।
सकल विश्व सौन्दर्य सदा जिसकी विभूति का है सेवी।
अमरावती-समान कहाँ पर देखी दिव्य मूर्ति देवी॥7॥

भरित अलौकिक बातों से है, स्वरित उच्चतम स्वर से है।
दमक रहा है परम दिव्य बन ललितभूत लोकोत्तर है।
जगतीतल-शरीर का उर है भव-विभूतियों से पुर है।
ऐसा कौन सरस सुन्दर है, सुरपुर-जैसा सुरपुर है॥8॥

(4)

है जहाँ सुखों का डेरा।
किस तरह वहाँ दुख ठहरें।
करती हैं विपुल विनोदित।
उठ-उठ विनोद की लहरें॥1॥

हैं लोग विहँसते हँसते।
या मंद-मंद मुसकाते।
है कोई खिन्न न होता।
सब हैं प्रसन्न दिखलाते॥2॥

औरों का विभव विलोके।
जी जाता है किसका जल।
है क्रोधा कौन कर पाता।
है कहाँ कलह-कोलाहल॥3॥

जो वचन कहे जाते हैं।
वे सब होते हैं तोले।
दिल में कड़वी बातों से।
पड़ पाते नहीं फफोले॥4॥

हैं नहीं बखेड़े उठते।
है नहीं झगड़ता कोई।
हैं नहीं जगाई जाती।
जी की बुराइयाँ सोई॥5॥

है अन्धाकधुन्धा न मचता।
है किसे न प्यारा धान्धाक।
पर मोह नहीं कर पाता।
परहित ऑंखों को अंधा॥6॥

ख्रिच एँच-पेंच भँवरों से।
चक्करें नहीं खाता है।
पड़ लोभ-सिंधु में परहित।
बेड़ा न डूब जाता है॥7॥

छल दम्भ द्रोह मद मत्सर।
सामने नहीं आते हैं।
दुर्भाव दिव्य भावों को।
मुख नहीं दिखा पाते हैं॥8॥

कब अहंमन्यता ममता।
मायामय है बन जाती।
उनकी मननीय महत्ता।
सात्तिवक सत्ता है पाती॥9॥

दुख से कराहता कोई।
है कहीं नहीं दिखलाता।
हो विकल वेदनाओं से।
दृग वारि नहीं बरसाता॥10॥

है काल नहीं कलपाता।
हैं त्रिकविधा ताप न तपाते।
ऑंसू आने से लोचन।
आरक्त नहीं बन पाते॥11॥

चित चोट नहीं खाते हैं।
मुँह नहीं किसी के सिलते।
चुभती लगती बातों से।
हैं नहीं कलेजे छिलते॥12॥

कमनीय कीत्तिक या कृति को।
है उज्ज्वलतम जिसका तन।
है मलिन नहीं कर पाता।
मैलेपन का मैलापन॥13॥

सुर है सद्वृत्तिक-विधाता।
सद्भाव-सदन के केतन।
सुरपुर है सहज समुज्ज्वल।
सात्तिवकता कान्त निकेतन॥14॥