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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ - २

(7)
विभु-विभुता

शार्दूल-विक्रीडित

चाहे हों फल, फूल, मूल, दल या छोटी-बड़ी डालियाँ।
चाहे हो उसकी सुचारु रचना या मुग्धकारी छटा।
जैसे हैं परिणाम अंग-तरु के सर्वांश में बीज के।
वैसे ही उस मूलभूत विभु का विस्तार संसार है॥12॥

        जैसे दीपक-ज्योति से तिमिर का है नाश होता स्वत:।
        जैसे वायु-प्रवाह से चलित है होती पताका स्वयं।
        जैसे वे यह कार्य हैं न करते इच्छा-वशीभूत हो।
        वैसे ही भव है विभूति-पति की स्वाभाविकी प्रक्रिया॥13॥

जैसे है घटिका स्वतंत्र बजने या बोलने आदि में।
जैसे सूचक सूचिका समय को देती स्वयं सूचना।
निर्माता मति ज्यों निमित्त बन के है सिध्दिदात्री बनी।
सत्ता है उस भाँति ही विलसती सर्वेश की सृष्टि में॥14॥

        जो सत्ता सब काल है विलसती सर्वत्र संसार में।
        सा जीव-समूह-मध्य जगती जो जीवनी-ज्योति है।
        व्यापी है वह व्योम से अधिक है तेजस्विनी तेज से।
        पूता है पवमान से, सलिल से सिक्ता, रसा से रसा॥15॥

गीत

नभ-तल था कज्जल-पूरित
था परम निविड़ तम छाया।
जब था भविष्य-वैभव में
भव का आलोक समाया॥1॥

        जब पता न था दिनमणि का
        था नभ में एक न तारा।
        जब विरचित हुआ न विधु था
        कमनीय प्रकृति-कर द्वारा॥2॥

जब तिमिर तिमिरता-भय से
थी जग में ज्योति न आयी।
जब विश्व-व्यापिनी गति से।
थी वायु नहीं बह पाई॥3॥

        अनुकूल काल जब पाकर।
        था सलिल न सलिल कहाया।
        परमाणु-पुंज-गत जब थी।
        वसुधा-विभूतिमय काया॥4॥

नाना कल-केलि-कलामय।
जब लोक न थे बन पाये।
जब बहु विधिक प्रकृति-सृजन के।
वर वदन न थे दिखलाये॥5॥

        जब स्तब्ध सुप्त अक्रिय हो।
        था जड़ीभूत भव सारा।
        तब किसके सत्ता-बल से।
        सब जग का हुआ पसारा॥6॥

परमाणु- पुंज- मंदर से।
तम- तोम- महोदधिक मथकर।
तब किसने रत्न निकाले।
अभिव्यक्ति-मूठियों में भर॥7॥

        क्यों जड़ को अजड़ बनाया।
        क्यों तम में किया उजाला।
        क्यों प्रकृति-कंठ में किसने।
        डाली मणियों की माला॥8॥

उस बहु युग की रजनी ने।
जिसने विकास को रोका।
कैसे किसके बल-द्वारा।
उज्ज्वल दिन-मुख अवलोका॥9॥

        क्यों कहें रहस्य-उदर की।
        कितनी लम्बी हैं ऑंतें।
        हैं किसका भेद बताती।
        ये भेद-भरी सब बातें॥10॥16॥