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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ - २

मानव ने ऐसे महान अद्भुत मन्दिर हैं रच डाले।
ऐसे कार्य किये हैं जो हैं परम चकित करनेवाले।
ऐसे-ऐसे दिव्य बीज वह विज्ञानों के बोता है।
देख सहस्र दृगों से जिनको सुरपति विस्मित होता है॥21॥

आज बहु विमोहिनी धारा है वारिधिक-वारि-विलसिता है।
विपिन-राजि-राजिता कुसुमिता आलोकिता विकसिता है।
नगरावली विभूति-शोभिता कान्त कला-आकलिता है।
जन-कोलाहलमयी लोक की लीलाओं से ललिता है॥22॥

दिन है दिव्य, रात आलोकित, दिशा दमकती रहती है।
रस की धारा बड़े वेग से उमड़-उमड़कर बहती है।
सुख नर्त्तन करता रहता है मत्त विनोद दिखाता है।
आती हैं झूमती उमंगें, मन पारस बन पाता है॥23॥

आज हुन बरसता है, छूते मिट्टी सोना बनती है।
जन-जीवनदायिनी जीवनी-धारा मरु-महि जनती है।
नभ-मंडल में उड़ पाते हैं घन-माला दम भरती है।
बनी कामिनी-सी गृहदासी कहा दामिनी करती है॥24॥

अवसर पाकर के वसंत अपना वैभव दिखलाता है।
फूल-फूल में हँसता कलियों को विकसाता आता है।
दिन में आ करके सहस्र-कर निज दिव्यता दिखाता है।
रजनी में रजनी-रंजन हँस सरस सुधा बरसाता है॥25॥

महनीया महि
(2)

वसुंधा! बतला दो हमको, क्यों चक्कर में रहती हो।
नहीं साँस लेने पाती हो, बहुत साँसतें सहती हो।
कौन-सी लगन तुम्हें लग गयी या कि लाग में आयी हो।
किसने तुम्हें बेतरह फाँसा, किससे गयी सताई हो॥1॥

ऑंख जो नहीं लग पाई तो ऑंख क्यों न लग पाती है।
रात-रात-भर कौन वेदना तुमको जाग जगाती है।
नहीं पास जाने पाती हो, सदा दूर ही रहती हो।
खींच-तान में पड़कर फिर क्यों दुख-धारा में बहती हो॥2॥

रवि तुमको प्रकाश देता है, किरणें कान्त बनाती हैं।
जीवन-दान किया करती हैं, रस तुमपर बरसाती हैं।
प्यारे सुअन तुम्हा तरु हैं, दुहिताएँ लतिकाएँ हैं।
सा तृण वीरुधा तुमने ही करके यत्न जिलाएँ हैं॥3॥

किन्तु हाथ है इसमें रवि का, ये सब उसके हैं पाले।
होते जो न दिवाकर के कर, पड़ते जीवन के लाले।
जो मयंक अपना मंजुल मुख रजनी में दिखलाता है।
विहँस-विहँसकर कर पसार जो सदा सुधा बरसाता है॥4॥

जिसकी चारु चाँदनी तुमको महाचारुता देती है।
लिपट-लिपट जो सदा तुम्हा तापों को हर लेती है।
उसने भी कलनीय निज कला कमलबंधु से पाई है।
इसीलिए क्या रवि! कृतज्ञता तुममें अधिक समाई है॥5॥

ऐ कृतज्ञ-हृदय! परिक्रमा जो यों रवि की करती हो।
तो हो धान्य अपार कीत्तिक सा भुवनों में भरती हो।
यद्यपि रवि को इन बातों की थोड़ी भी परवाह नहीं।
जो तुम करती हो रत्ताी-भर उसकी उसको चाह नहीं॥।6॥

वह महान है, बड़े-बड़े ग्रह उससे उपकृत होते हैं।
कविगुरु-जैसे उज्ज्वलतम बन अपने तम को खोते हैं।
वह है जनक सौरमंडल का उसका प्रकृत विधाता है।
उसके तिमिर-भ अन्तर की दिव्य ज्योति का दाता है॥7॥

वह सहस्र-कर रज-कण तक को किरणों से चमकाता है।
स्वार्थ-रहित हो तरुवर क्या तृण तक का जीवन-दाता है।
जड-जंगम का उपकारक है, तारकचय का पाता है।
सर्वभूत का हित-चिन्तक है, उसका सबसे नाता है॥8॥

करता है चुपचाप कौन हित, निस्पृह कौन दिखाता है।
ढँपा हुआ उपकार खोल करके दिखलाया जाता है।
उचित जानकर उचित हुआ कब उचित न उचित पिपासाहै।
है संसार स्वार्थ का पुतला, प्रेम प्रेम का प्यारेसा है॥9॥

सह साँसत कर्तव्य-बुध्दि से बँधा कृतज्ञता-बंधन में।
दिन-मणि की अज्ञात दशा में कोई स्वार्थ न रख मन में।
जो करती हो उसे देख यह कहती है मति कमनीया।
हों रवि महामहिम वसुंधा! पर तुम भी हो महनीया॥10॥

विचित्र वसुमती
(3)

मणि-मंडित मुकुटावलि-शोभित अचल हिमाचल-से गिरिचय।
किसपर हैं प्रति वासर लसते बनकर विविध विभूति-निलय।
किस पर नभ-सा वर वितान सब काल तना दिखलाता है।
जिसको रजनी में रजनीपति बहुरंजित कर पाता है॥1॥

खिलती आकर अरुण-कान में बात अनूठी कहती है।
प्रात:काल रंगिणी ऊषा किसको रँगती रहती है।
अगणित सरिता-सर-समूह में मंजुल मणियाँ भरती हैं।
किसमें प्रति दिन रवि अनन्त किरणें क्रीड़ाएँ करती हैं॥2॥

किसके सब जलाशयों में पड़ घन श्यामल तन की छाया।
यों लसती है क्षीरसिंधु में ज्यों कमलापति की काया।
हरित छटा अवलोक सरस बन घि घूमते आते हैं।
साधा-भरों की सुधा कर किसपर जलद सुधा बरसाते हैं॥3॥

दिन में किसका रवि सहस्र कर से आलिंगन करता है।
निशा में निशा-नायक किसकी नस-नस में रस भरता है।
ऑंखें फाड़-फाड़ किसको अवलोकन करते हैं ता।
करके जीवन-दान वारिधार बनते हैं किसके प्यारे॥4॥

सदा समीर प्यारे से किसको पंखा झलता रहता है।
हिला-हिला लतिका-समूह को सुरभित बनकर बहता है।
कीचक-छिद्रों में प्रवेश कर गीत मनोहर गाता है।
विकसित कर अनन्त कलियों को किसको बहुत रिझाता है॥5॥