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पार्क की बेंच / अज्ञेय

 उजड़ा सुनसान पार्क, उदास गीली बेंचें-
दूर-दूर के घरों के झरोखों से
निश्चल, उदास परदों की ओट से झरे हुए आलोक को
-वत्सल गोदियों से मोद-भरे बालक मचल मानो गये हों-
बेंच पर टेहुनी-सा टिका मैं आँख भर देखता हूँ सब

तो अचकच देखता ही रह जाता हूँ,
तो भूल जाता हूँ कि मेरे आस-पास
न केवल नहीं है अन्धकार, बल्कि
गैस के प्रकाश की तीखी गर्म लपलपाती जीभ
पत्ती-पत्ती घास-तले लुके-दुबके उदास

सहमे धुएँ को लील लिये जा रही है,
और बल्कि
देख इस निर्मम व्यापार को असंख्य असहाय पतिंगे
तिलमिला उठे हैं, सिर पटक के चीत्कार कर उठे हैं कि
निरदई हंडे ने उन्ही का अन्तिम आसरा भी लूट लिया

कलकत्ता, 1938