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प्रतीक्षा: एक अनूठा सच / शिव कुमार झा 'टिल्लू'

प्रतीक्षा! हो तुम एक अनूठाऔर बहुरुपिया सच !!
हर कोई है इससे संदर्भित
जीवन के हर पहलू में !
भ्रूण को रहती है ...
गर्भ से बाहर आने की प्रतीक्षा
उस परिपेक्ष्य मेंकतिपय असह्य पीड़ा से पीड़ित
हर माँ को रहती है ..
संतान को जन्म देने की प्रतीक्षा ..
अपने संतान को देती है जन्म
हर दुःख जाती है भूल...
फिर कलेजे के टुकड़े को
लगाकर कलेजे से कराती है पान
अपने शरीर में संजोगे सारे पोषक तत्वों का ..
बेचारी !! अरे अपने लिए खाई थी क्या ?
गर्भ के नौ मास में...
क्या पता नवग्रह की तरह होगा
कलेजे का भविष्य...
मूक शैशव को मात्र दुग्ध पान की प्रतीक्षा
अबूझ समझ रोता भी है
रुलाता भी अपनी माँ को
जब नन्हें के आंसू को देख कोई तीसरा नहीं दौड़ता...
जन्म से अधोवयस तक माँ...
समझती है अपनी संतान को
एक शिशु...
आश्चर्य ! कितना अंतर है ?
वही नहीं समझ पाता है जब हो जाता है सबल...
माँ करते रहती है प्रतीक्षा
अपने बच्चों के विद्यालय से आने की ..
फिर क्रीड़ा मैदान से आने की !
आगे कार्यस्थल से आने की
कभी दूरभाष की
खुश होती है देख संतान को माया लिप्सा भोगविलास की ....
अपने जीवन सहचर को भी
इस क्रम में यदाकदा जाती है भूल !
कभी ना गड़े संतति के कोमल पैरों में शूल ..
हाय री माँ ...
तेरी प्रतीक्षा से डोल रहा यह जहाँ..
है कोई मोल
संतान नई भी किया प्रतीक्षा
बचपन में नहलाने की
दूध पिलाने की
मातृहाथों से खाने की...
अब माँ हो गयी है बुढ़िया
अभी संतान कर रहे हैं प्रतीक्षा ....
माँ के ऊपर जाने की...
मातृकर्म कर दुग्ध भात खाने की !!
समाज को दही -मिठाई खिलाने की !!!
हाय रे त्रिशब्द : प्रतीक्षा
तेरे भी कितने रूप
कितने अलग-अलग प्रार्थी
कोई सहज स्नेहिल माँ
तो कोई संतति अनूप और भूप!!!