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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ - १

द्रुतविलंबित छंद

गत हुई अब थी द्वि-घटी निशा।
तिमिर – पूरित थी सब मेदिनी।
बहु विमुग्ध करी बन थी लसी।
गगन मंडल तारक - मालिका॥१॥
तम ढके तरु थे दिखला रहे।
तमस – पादप से जन - वृंद को।
सकल गोकुल गेह - समूह भी।
तिमिर-निर्मित सा इस काल था॥२॥
इस तमो – मय गेह – समूह का।
अति – प्रकाशित सर्व-सुकक्ष था।
विविध ज्योति-निधान-प्रदीप थे।
तिमिर – व्यापकता हरते जहाँ॥३॥
इस प्रभा – मय – मंजुल – कक्ष में।
सदन की करके सकला क्रिया।
कथन थीं करतीं कुल – कामिनी।
कलित कीर्ति ब्रजाधिप - तात की॥४॥
सदन-सम्मुख के कल ज्योति से।
ज्वलित थे जितने वर - बैठके।
पुरुष - जाति वहाँ समवेत हो।
सुगुण – वर्णन में अनुरक्त थी॥५॥
रमणियाँ सब ले गृह–बालिका।
पुरुष लेकर बालक – मंडली।
कथन थे करते कल – कंठ से।
ब्रज – विभूषण की विरदावली॥६॥
सब पड़ोस कहीं समवेत था।
सदन के सब थे इकठे कहीं।
मिलित थे नरनारि कहीं हुए।
चयन को कुसुमावलि कीर्ति की॥७॥
रसवती रसना बल से कहीं।
कथित थी कथनीय गुणावली।
मधुर राग सधे स्वर ताल में।
कलित कीर्ति अलापित थी कहीं॥८॥
बज रहे मृदु मंद मृदंग थे।
ध्वनित हो उठता करताल था।
सरस वादन से वर बीन के।
विपुल था मधु-वर्षण हो रहा॥९॥
प्रति निकेतन से कल - नाद की।
निकलती लहरी इस काल थी।
मधुमयी गलियाँ सब थीं बनी।
ध्वनित सा कुल गोकुल-ग्राम था।१०॥
सुन पड़ी ध्वनि एक इसी घड़ी।
अति – अनर्थकरी इस ग्राम में।
विपुल वादित वाद्य-विशेष से।
निकलती अब जो अविराम थी॥११॥
मनुज एक विघोषक वाद्य की।
प्रथम था करता बहु ताड़ना।
फिर मुकुंद - प्रवास - प्रसंग यों।
कथन था करता स्वर–तार से॥१२॥
अमित विक्रम कंस नरेश ने।
धनुष-यज्ञ विलोकन के लिए।
कुल समादर से ब्रज - भूप को।
कुँवर संग निमंत्रित है किया॥१३॥
यह निमंत्रण लेकर आज ही।
सुत – स्वफल्क समागत हैं हुए।
कल प्रभात हुए मथुरापुरी।
गमन भी अवधारित हो चुका॥१४॥
इस सुविस्तृत - गोकुल ग्राम में।
निवसते जितने वर – गोप हैं।
सकल को उपढौकन आदि ले।
उचित है चलना मथुरापुरी॥१५॥
इसलिए यह भूपनिदेश है।
सकल – गोप समाहित हो सुनो।
सब प्रबंध हुआ निशि में रहे।
कल प्रभात हुए न विलंब हो॥१६॥
निमिष में यह भीषण घोषणा।
रजनि-अंक-कलंकित - कारिणी।
मृदु - समीरण के सहकार से।
अखिल गोकुल – ग्राममयी हुई॥१७॥
कमल – लोचन कृष्ण - वियोग की।
अशनि – पात - समा यह सूचना।
परम – आकुल – गोकुल के लिए।
अति – अनिष्टकरी घटना हुई॥१८॥
चकित भीत अचेतन सी बनी।
कँप उठी कुलमानव – मंडली।
कुटिलता कर याद नृशंस की।
प्रबल और हुई उर - वेदना॥१९॥
कुछ घड़ी पहले जिस भूमि में।
प्रवहमान प्रमोद – प्रवाह था।
अब उसी रस प्लावित भूमि में।
बह चला खर स्रोत विषाद का॥२०॥