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प्रेम-परख - 3 / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

एक है सुरपुर-सुपथ-मंदाकिनी,
सुख-सरित है दूसरी मरु-राह में;
है बड़ा अंतर, असमता है बहुत,
प्रेम-ममता और समता चाह में।
पति-परायणता वहाँ कैसे पुजे,
है जहाँ फहरा रही ममता-ध्वजा;
प्रेम की अधीनता क्यों प्रिय लगे,
चित्ता में स्वाधीनता-डंका बजा।
चित-विमलता जो विमल करती नहीं,
तो अधर पर किसलिए विलसी हँसी;
जो मधुरता है न उसमें प्रेम की,
तो मधुर मुसकान क्या मुख पर लसी।
उस सरसता में सरसता है कहाँ,
है बनी जिसकी कि नीरसता सगी;
रंग सुख की चाह का कैसे रहे,
प्रेम रंगत में न रँगने से रँगी।
वह विना सच्ची-लगन-जल से सिंचे;
पा अलौकिक-भाव-दल पलता नहीं;
चित-विमलता-मंजु-अवनीतल बिना
प्रेम-पौधा फूलता-फलता नहीं।