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फुटपाथ पर / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

लंदन में रहता हूँ
जिस हॉस्टिल में मैं
उसके सामने एक पार्क।
पार्क के दोनों ओर सड़के हैं
रात-दिन चलतीं जो
लेती हैं साँस सिर्फ
प्रातः रविवार को
कुछ ही समय के लिए।
एक चर्च भी है भव्य
पार्क के उस पार।

बात रविवार की रात की है
मुश्किल से बजे होंगे साढ़े सात।
गगन घिरा था कुछ मेघों से
धरती थी भीगी कुछ
हलकी फुहारों से।
आ रहा था शाम का भोजन कर
अपने हॉस्टिल को मैं।
देखता हूँ हॉस्टिल के सामने
पार्क की बगल के
सँकड़े ‘फुटपाथ’ पर
बिजली के खम्भे से सटे हुए
युवक और युवती दो
आलिंगन-पाश में
बँधकर हुए हैं एक।
आते और जाते हुए
पथिकों की पड़ रहीं
उन पर निगाहें हैं स्वाभाविक।
ऊँची औ, नुकीली एड़ियों की
खट-खट-खट-खट खट-खट-खट
दूर ही से पड़ रही सुनाई
खूब साफ है।

मोटरें हैं आ रहीं
फटफटें हैं आ रहीं
किंतु यह युग्म है कि
ध्यानियों के ध्यान-सा,
सिद्धों की सिद्धावस्था-सा,
स्थितप्रज्ञ-सा
अपने में खोया हुआ
एकदम अडिग है
एकदम अविचल है।

इतने में पहुँचा मैं
द्वार पर हॉस्टिल के,
और एक बार फिर
घुसने के पहले, घूम
देखा उस युग्म को
जाती हुई मोटर की रोशनी में
और ठीक उसी क्षण
पार्क के उस ओर
मोड़ पर मुड़ती एक
दूसरी मोटर की
रोशनी के साथ ही
पड़ी दृष्टि खड़े हुए
सामने के मूक-विवश चर्च पर।
और दी सुनायी
एक कुत्ते की भों-भों
चर्च की बगल के
मकान की खिड़की से।

नवम्बर, 1963 (25 बोवर्न स्क्वायर, लंदन, डब्ल्यू.सी. 1)