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बंदी और विश्व / अज्ञेय

मैं तेरा कवि! ओ तट-परिमित उच्छल वीचि-विलास!
प्राणों में कुछ है अबाध-तनु को बाँधे हैं पाश!
मैं तेरा कवि! ओ सन्ध्या की तम-घिरती द्युति कोर!
मेरे दुर्बल प्राण-तन्तु को व्यथा रही झकझोर!

मैं तेरा कवि! ओ निशि-विष-प्याले के छलके रिक्त!
परवशता के दाह-नीर से मेरा मन अभिषिक्त!
मैं तेरा कवि! ओ प्रात:तारे के नेत्र, हताश!
मेरा भी तो हृत-वैभव से पूर्ण सकल आकाश!

मै तेरा कवि! ओ कारा की बद्ध अबाध विकलते!
उर पीड़ा-निधि, पर आँखों से आँसू नहीं निकलते!

डलहौजी, 10 जून, 1934