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बोझ / रफ़ीक सूरज

पहली ही दफ़े चक्की से पिसान लाने पर
सिर पर रखा आटे का डिब्बा उतरते ही
इतना हल्का महसूस हुआ उसे, मानों मन भर बोझ कम हो गया हो
कुछ देर पहले गली से गुज़रते हुए
उसके नएपन को मुड़-मुड़कर देखने वाली निगाहें
और गजरे से सजी हुई लम्बी चोटी का
लहराना सँभालते सँभालते
ऐसी हालत हो गई थी उसकी
कि कब किनारे लगूँ!

वह थककर चौखट पर ही बैठ गई
दोनों पैर फैलाकर..
माँ बताती रहती है कई बार
दो-दो गगरियाँ डेढ़-डेढ़ मील
दूर से चलकर पानी लाने की बातें
तब की, जब मेरे बखत उसे पाँचवा महीना लगा था ...
(कल माँ ने ऐसे ही बताई थी एक कहानी
चक्की पर चार पसेरी अनाज अकेले पीसने की!)
झुलसाई समूची देह सँभाले
वह चुपचाप सुनती रहती है
दीवार पर बन्द पड़ी घड़ी
और सुनाई ना देने वाले उसके गजर को

और मैं
उस अकेली को सौंपे गए गर्भ का बोझा लाँघकर
अपराधी की तरह चेहरे पर मफ़लर लपेट
ऐसे बाहर निकलता हूँ जैसे कुछ हुआ ही न हो!

मराठी से हिन्दी में अनुवाद : भारतभूषण तिवारी