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भीड़ / शंख घोष / प्रयाग शुक्ल

'उतरना है ? उतर पड़िए हुज़ूर'
उतार कर चर्बी कुछ अपनी यह।'

'आँखें नहीं हैं ? अन्धे हो क्या ?'
'अरे, तिरछे हो जाओ, जरा छोटे और।'

भीड़ से घिरा हुआ
कितना और छोटा बनूँ मैं
हे ईश्वर !

क्या रहूँ नहीं अपने जितना भी
कहीं भी
खुले में, बाज़ार में, एकान्त में ?

मूल बंगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
(हिन्दी में प्रकाशित काव्य-संग्रह “मेघ जैसा मनुष्य" में संकलित)