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मन का चाहा / योगेन्द्र दत्त शर्मा

मैंने अक्सर यह चाहा है-
टूटे लोगों के सिरहाने,
फूलों के तकिये बनवाकर
स्निग्ध चांदनी की शैया पर
सो जाने का दूं आमंत्रण
झुलसाती लूओं को दे दूं
निर्वासन की क्रूर यंत्रणा!

पर, मैं देखा करता अक्सर,
शीतल, मंद, सुगंध हवाएं
रह जाया करती हैं घुटकर;
ओस सूख जाती दूबों की,
लाश बिछी है मंसूबों की,
कुम्हलाई फूलों की पांखें
फटी हुई कलियों की आंखें
लूओं के झुलसाते झोंके
मौसम से कर रहे मंत्रणा!

दुर्निवार दारुणता नंगी
नाच रही है बनी त्रिभंगी,
काल-कुंडली पर बैठे हैं
फन फैलाये सर्प भयानक,
घोर त्रासदी तोड़ गई है
कोमलता का दर्प अचानक!

विस्फोटक हो रही परिस्थिति,
नित्य नई भर रही कुलांचे,
पूछ रही हैं मुझसे आकर,
टूटे लोगों की आवाजं-
बिफरें, सिर पटकें या नाचें?
कितनी और परिस्थिति जांचे?
कितनी और व्यथाएं बांचें?

पर, मैं अपने में खो जाता,
केवल मौन खड़ा रहता हूं,
या फिर यह उत्तर होता है-
मन का चाहा कब होता है?
-अगस्त, 1975