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मरण के द्वार पर / अज्ञेय

 
(1)
ज्योति के
भीतर ज्योति के
भीतर ज्योति।
प्यार है वह-वह सत्
और तत् तदसि एवं-एतत्।

(2)
कहीं एक है वह जिस का है
यह। पर इस से
मेरा क्या नाता
जब कि इस से भी
कुछ नहीं आता-जाता
कि मैं भी हूँ या नहीं?

(3)
कृतं स्मर मृतान्
स्मर क्रतो स्मर।
-हाँ, वह मरण के द्वार पर।
मगर वहाँ जाना कहाँ
इस मारग पर चरण धर?

नयी दिल्ली, दिसम्बर, 1969