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मैं अपने पैरों के किंकिण / अज्ञेय

 मैं अपने पैरों के किंकिण-नुपूर खोल कर तुम्हारे चरणों में अर्पण करती हूँ। तुम्हारे समीप आ कर मैं ने अपने लौट जाने के सामथ्र्य का त्याग कर दिया है।
मैं अपनी भुजाओं से वलयादि भूषण उतार कर तुम्हारे चरणों में अर्पण करती हूँ।
तुम्हारे पाश्र्व में खड़ी हो कर मैं ने अपनी सारी क्षमताएँ तुम्हारी सेवा में समर्पित कर दी हैं।
मैं अपनी कटि की मणि-मेखला अलग कर के तुम्हारे चरणों में अर्पण करती हूँ।
तुम्हारे आश्रय की छाया में मैं ने अपनी सब क्षमताएँ तुम्हारे विश्वास के आगे लुटा दी हैं।

मैं अपने वक्ष से यह हार निकाल कर तुम्हारे चरणों में अर्पण करती हूँ।
तुम्हारे तेज के अनुगत हो कर मैं ने अपने हृदय की घनीभूत ज्वाला तुम्हें उत्सर्ग कर दी है।
मैं अपने शीश का यह एकमात्र कवरी-कुसुम निकाल कर तुम्हारे चरणों में अर्पण करती हूँ।
तुम्हारे हो कर मैं ने अपने अन्तिम दुर्ग का द्वार भी तुम्हारे लिए खोल दिया है-अपना अभिमान तुम्हारे पथ में बिखरा दिया है।
इस प्रकार, अपना सब वैभव दूर कर, अपने प्राणों की अत्यन्त अकिंचनता में मैं अपने-आप को तुम्हें देती हूँ।

1934