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यह नया जीवन कहाँ से आया / अज्ञेय

यह नया जीवन कहाँ से आया?
संसार-भर के संजीवन की एक उन्मत्त लहर बही जा रही है। लहर नहीं, अनबुझ आग की एक लपट धधकती हुई जा रही है! उसी की एक झलक मुझे मिली है-एक किरण मुझे भी छू गयी है।
यह कवि-कल्पना के वसन्त की चमक-दमक नहीं है-न शरद् ऋतु के रवि का क्षीण घाम ही है। इस में उन-सा क्षुद्र सौन्दर्य नहीं है-इस में निर्बाध व्यापकत्व की भैरवता है-और उत्तप्त आलोक!
(इस संजीवन-सागर में भी तुम मृत्यु नहीं, मृत्यु की छाया की तरह मँडरा रही हो!)

दिल्ली जेल, 31 अक्टूबर, 1932