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ये ज़िन्दगी के रास्ते / जगदीश गुप्त

               ये ज़िन्दगी के रास्ते
               केवल तुम्हारे वास्ते
               मैं सोचता था एक दिन ।

केवल तुम्हारे स्नेह की अमराइयों में घूमकर
केवल तुम्हारे रूप की परछाइयों में झूमकर
केवल तुम्हारे वक्ष की गहराइयों को चूमकर
               सब बीत जाएगी उमर;
               मैं सोचता था एक दिन ।

केवल तुम्हारे स्निग्ध केशों की निशाओं पर लहर
केवल तुम्हारी दृष्टि से धुलती दिशाओं में ठहर
केवल तुम्हारी गोद में हार-थका सा शीश धर
               कट जाएगा सारा सफ़र;
               मैं सोचता था एक दिन ।

विश्वास था निश्चय तुम्हारी बाहुओं से छूटकर,
यह देह जाएगी मुरझ, यह प्राण जाएँगे बिखर,
विश्वास था तुमसे अलग होना ज़हर हो जाएगा
खोया तुम्हें तो ज़िन्दगी का सत्य भी खो जाएगा
               पर आज यह सब झूठ है,
               तब झूठ था, अब झूठ है,

तुम दूर हो, वह स्नेह की अमराइयाँ भी दूर हैं ।
परछाइयाँ भी दूर हैं, गहराइयाँ भी दूर हैं ।
साँसें तुम्हारी दूर हैं, बाँहें तुम्हारी दूर हैं ।
मंज़िल तुम्हारी दूर है, राहें तुम्हारी दूर है ।
               तुम तो नहीं पर मौत की तसवीर मेरे साथ है ।
               हर चाह को बाँधे हुए तक़दीर मेरे साथ है ।

फिर भी अभी मैं जी रहा ।
ये ही नहीं मैं सोचूँ आगे और जीने की राह ।
अब देखता हूुँ ज़िन्दगी यह प्यार से ज़्यादा बड़ी ।
दो लोचनों की अश्रुमय मनुहार से ज़्यादा बड़ी ।
इसमें हज़ारों मील लाखों मील रेगिस्तान है ।
फिर भी किसी उम्मीद पर चलता इनसान है ।
               उम्मीद वह जो साथ रहने तक नहीं सीमित यहाँ ।
               हर व्यक्ति केवल प्यार पाकर ही नहीं जीवित यहाँ ।

हारा-थका-सा शीश, पत्थर पर, किसी तरु-छाँह में,
रख कर ज़रा सी देर चलना है मरन की राह में ।
यह ज़िन्दगी का सत्य सच मानो कि तुम से भी बड़ा ।
इस तक पहुुँचने को मनुज होता रहा गिर-गिर खड़ा ।
इस सत्य के आगे बिछुड़ना और मिलना एक है ।
               इस सत्य के आगे सभी धरती हृदय का पात्र है,
               मेरा तुम्हारा स्नेह इस पथ की इकाई मात्र है ।

माना हमारे स्नेह में कोई कमी होगी नहीं,
माना हमारे दीप की कम रोशनी होगी नहीं,
लेकिन किसी भी रोशनी को बाँध लेना पाप है ।
अपने हृदय का स्नेह दुनिया को न देना पाप है ।
जो धूलि-कण आए हमारी राह में सोना बने ।
अपना पराया अब न होगा कोई हमारे सामने ।
               तुमने दिया सर्वस्व मुझसे भी ज़रा-सा दान लो ।
               इस सत्य को मैं चाहता हूँ आज तुम भी मान लो ।

मानो न मानो तुम सही,
पर सोचता हूुँ मैं यही,
ये ज़िन्दगी के रास्ते ।
सारी धरा के वास्ते ।