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वन-पारावत / अज्ञेय

 भग्नावशेष पर मन्दिर के, नभ पृष्ठ-भूमि पर चित्रित-से,
दो वन-पारावत बैठे हैं।
मधु आगम से उन में जागी कोई दुर्निवार झंकार-
क्योंकि प्रकृति-लय से हैं मिले हुए उन के प्राणों के तार!
कुछ माँग रही इठला-इठला, निज उच्छल गरिमा से विकला

चंचल कपोत की नृत्यकला।
कृत्रिम निग्रह-पथ के पथिकों को मानो कह जाती हो-
कितनी तुच्छ कामना वह कि दबाने से दब जाती हो!
चंचु-द्वय की मंजुल क्रीड़ा, हर चुकी कपोती की व्रीडा
जागी अपूर्णता की पीड़ा।

लज्जा तो आकांक्षा को आकर्षक करने ही को है-
और प्रणय का चरम प्रस्फुटन आत्म-व्यंजना ही तो है!
खग-युगल! करो सम्पन्न प्रणय, क्षण के जीवन में ही तन्मय
हो अखिल अवनि ही निभृत निलय।

हाय तुम्हारी नैसर्गिकता! मानव-नियम निराला है-
वह तो अपने ही से अपना प्रणय छिपानेवाला है।

लाहौर किला, 8 मार्च, 1934