Last modified on 3 नवम्बर 2009, at 21:51

विदा के चौराहे पर: अनुचिन्तन / अज्ञेय

यह एक और घर
पीछे छूट गया,
एक और भ्रम
जो जब तक मीठा था
टूट गया।

कोई अपना नहीं कि
केवल सब अपने हैं:
हैं बीच-बीच में अंतराल
जिन में हैं झीने जाल
मिलानेवाले कुछ, कुछ दूरी और दिखानेवाले
पर सच में
सब सपने हैं।

पथ लम्बा है: मानो तो वही मधुर है
या मत मानो तो वह भी सच्चा है।
यों सच्चे हैं भ्रम भी, सपने भी
सच्चे हैं अजनबी—और अपने भी।

देश-देश की रंग-रंग की मिट्टी है:
हर दिक् का अपना-अपना है आलोक-स्रोत
दिक्काल-जाल के पार विशद निरवधि सूने में
फहराता पाल चेतना की, बढ़ता जाता है प्राण-पोत।

हैं घाट? स्वयं मैं क्या हूँ? है बाट? देखता हूँ मैं ही।
पतवार? वही जो एकरूप है सब से—
इयत्ता का विराट्।

यों घर—जो पीछे छूटा था—
वह दूर पार फिर बनता है
यों भ्रम—यों सपना—यों चित्-सत्य
लीक-लीक पथ के डोरों से
नया जाल फिर तनता है...