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विदा हो चुकी / अज्ञेय

 विदा हो चुकी (मिलन हुआ कब?) पर हा, फिर भी 'विदा! विदा!'
नहीं कभी आया था जो उस को कहता हूँ 'अब तू जा!'
फिर भी क्यों अन्तर में जाग रहा कोई सोया परिताप?
कहता, 'इस को भी मेटेगा तू जो कुछ भी कभी न था?'
नहीं मिले थे! कैसे होगी टूट अलग होने में चोट?
पर अन्तस्तल में यह कैसा उबल-उबल पड़ता विस्फोट?
उर में उठती है रह-रह कर कोई छिपी-छिपी-सी हूक-
प्रकटित हो कर भी रह जाती मानस-अन्धकार की ओट!
राह-राह के राही सहसा जब पथ पर मिल जाते हैं-
चौराहे पर आ कर क्या वे अलग नहीं हो जाते हैं?
प्रणय-घात होता है क्या तब जब उस घनिष्ठता के बाद
आशापूर्ण हँसी हँसते वे तमसा में खो जाते हैं?
सत्य नहीं मृगतृषा सही, मैं तुम को दीख सका तो था-
खो वन-पथ में गया, किन्तु मैं बन सहपथिक चला तो था?
नहीं चाहता कोसो, यह भी नहीं कि मुझ पर हो विक्षोभ-
'बिगड़ गया' यह भाव रहे क्यों, सोचो 'कभी बना तो था!'
मैं यह भी क्यों कहूँ कि मुझ को मृतवत् ही लेना तुम जान,
'नहीं हुआ ही था वह'-यों भी या रखना अपना अभिमान?
जीवन के गहरे अनुभव यों नहीं कभी भूले जाते-
सदा रिक्त ही रहता है जो एक बार भर चुकता स्थान!
कैसे कहूँ 'भुला देना', कैसे यह भी 'मत जाना भूल'-
कैसे कहूँ 'फूल, मत होना' कैसे कहूँ कि 'होना शूल'।
शंकित-मन जो मैं कहता हूँ, शंकित-मन ही तुम सुन लो-
नहीं तुम्हारी ही, यह है मेरे भी अरमानों की धूल!

मुलतान जेल, 5 दिसम्बर, 1933