Last modified on 19 जनवरी 2016, at 14:58

विसालेयार-2 / नज़ीर अकबराबादी

इधर को जिस घड़ी ऐ! हमनसी,! वह यार आया।
हमारे दिल से गयी बेकली क़रार आया॥
उसे जो मेहर से है ज़र्रा परबरी मंजू़र।
तो फिर इधर को झाँकता वह मेहरवार आया॥
मिजाज उसका जो आशिक नवाज़ है हमदम।
तो राहे लुत्फ पे फिर वह करम शिआर आया॥
किसी ने दौड़ के हमसे कहा मुबारक हो।
तुम्हारे पास ही वह नाज़नी निगार आया॥
किसी ने गुल की तरह हँस के यूँ कहा आकर।
भला हुआ कि तुम्हारा भी गुल इज़ार आया॥
खुशी ये बोली ”तुम्हारी मैं गरद ख़तिर हूँ“।
इधर से ऐश पुकारा कि ”मैं भी हाज़िर हूँ“॥

गया मलाल हुए शाद हम ज़माने से।
हुआ मिलाप छुटे हिज्र के सताने से॥
निशात जी को हुई हर तरफ के मिलने से।
सुरूर दिल को हुआ हंसने और हंसाने से॥
हुई नमूद वह साअत भी इम्बिसात भरी।
कि जिसमें शाद हुए हम भी दिल लगाने से।
हर एक तरफ से हुई सौ तरह की खुशवक़्ती।
नवेदें आइयाँ इश्रत के कारखाने से॥
समाते फूले नहीं पैरहन में अब हरगिज।
हम ऐसे शाद हैं उस गुलबदन के आने से॥
जहाँ में जिस को मुलाकाते यार कहते हैं।
अजीब बहार है उसको बहार कहते हैं॥

हमारे दिल में जो फुर्कत की बेक़रारी थी।
तो उसके हाथ से सूरत अजब हमारी थी॥
कभी ख़याल रुख़ व जुल्फ़ का सहर ता शामे।
कभी तसव्वुरे मिस्रगाँ से दिल फ़गारी थी॥
न दिल लगे था किसी शग़ल से कोई साअत।
न जाँ को जुज अलमे हिज्र हम किनारी थी॥
यह इज्तराब था हरदम, ये अपनी बेताबी।
हमारे हाल पे सीमाव की भी जारी थी॥
खुदा के फज्ल से फिर उसमें खै़र व खू़बी से।
वह दिन भी आया कि जिसकी उम्मीदवारी थी॥
जो देखी भर के नजर गुलइज़ार की सूरत।
तो हर तरफ नज़र आयी बहार की सूरत॥

अयाँ जो सामने आकर वह गुल इज़ार हुआ।
तो आलम ऐश का फिर एक से हज़ार हुआ॥
निगह को हुस्न ने उस गुल के ताज़गी बख़्शी।
खुशी करीब हुई दूर इन्तज़ार हुआ॥
जुदा जो हिज्र में हमसे क़रार रहता था।
हमारे दिल से वह फिर आनकर दो चार हुआ॥
तसल्ली दिल को हुई उस सनम के मिलने से।
रुख़ उसका देखते ही रफह इज़्तरार हुआ॥
तलब थी दिल तयीं जिसकी एक मुद्दत से।
हज़ार शुक्र शुक्र वहीं ऐश आश्कार हुआ॥
निशातों ऐश को ख़ातिर से हम क़रीनी है।
नियाजो नाज़ है और लुत्फे हम नसीनी हैं॥

हम अपने दिल की खुशी का बयाँ करें क्या-क्या।
कि एक लहज़ा ये ठहरा है ऐश का नक्शा॥
कभी हैं देखते रुखसार यार को हँस हँस।
कभी खुशी से हैं छू लेते उसकी जुल्फ़ें दुता॥
कभी हैं यार के चश्मो निगाह से पीते।
खुशी से ऐश के भर-भर के साग़रे सहबा॥
कभी हैं उसके तकल्लुम से दिल को खुश करते।
कभी हैं उसके तबस्सुम पे दिल से होते फ़िदा॥
जो देखता है हमें इस तरह की इश्रत में।
तो यह सुखन वह रहे मुंसफी से है कहता॥
”नज़ीर“ तुमने जो हासिल ये शादमानी की।
यही बहार है बुस्ताने ज़िन्दगानी की॥

शब्दार्थ
<references/>